SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलकापुरी और कालिदासीया संगीतवैदुषी मनोरम वातावरण की सृष्टि होती है। अलका के तत्कालीन प्रासादों में ही ऐसी संगीतधारा प्रवहमान हो, अन्यत्र नहीं, ऐसा नहीं है। आज भी थोड़ा भी संगीत से प्रेम रखने वाले लोगों के गृहों में रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेपरिकार्डर, रिकार्ड प्लेयर आदि द्वारा मधुर संगीत का रसास्वाद प्राप्त किया जाता है । किसी भी प्रकार के शैक्षिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम जहाँ जहाँ सम्पन्न होनेवाले होते हैं, वहाँ भी कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पूर्व तथा एक कार्यक्रम से दूसरे कार्यक्रम के मध्य जो समय होता है, उसमें इस प्रकार का वाद्यसंगीत प्रायः सुनने में आता है जो अत्यधिक कर्णप्रिय लगता है तथा श्रोताओं के आगामी कार्यक्रमों के प्रति औत्सुक्य को बढ़ाने में सहायता करता है। मृदंग का स्वर अतिगम्भीर तथा श्रुतिमधुर होता है । मेघ की गड़गड़ाहट भी मृदंग की ही भाँति गम्भीर एवं स्निग्ध होती है तभी कवि ने दोनों में साम्य का उल्लेख किया है। मृदंग-ध्वनि तथा मेघ-गर्जन के साम्य का वर्णन साहित्य में अनेकशः उपलब्ध है । मृदग का शास्त्रीय वर्णन, द्वितीय पद्य की व्याख्या के अनन्तर प्रस्तुत किया जाएगा। द्वितीय पद्य हैं -- 'यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि ज्योतिच्छायाकुसुमरचनान्युत्तमस्त्रीसहाया:। आसेवते मधु रतिफलं कल्पवृक्षप्रसूत त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्वाहतेषु ।।' उत्तरमेघ- ५. अर्थात् जिस अलका में उत्कृष्ट काटि की स्त्रियों से युक्त यक्ष संगमरमर के बने हुए और सितारों की परछाई जैसी फूलों की कारीगरी वाले प्रासादों के फर्शो पर पहुँच कर तुम्हारी तरह गम्भीर ध्वनि वाली पखावजों के ठनकायी जाने पर कल्पवृक्ष से उत्पन्न होने वाली रतिफल नामक मदिरा का सेवन करते हैं । यक्षा:--अमरसिंह के अनुसार यक्ष एक देवयोनि है । इस शब्द की व्युत्पत्ति से भी यह बात प्रकट होती है। यक्ष पूजायाम् (चुरादि) धातु से घञ् प्रत्यक्ष करके यक्ष शब्द निष्पन्न होता है । यक्षों को देवरूप में बौद्ध, जैन और ब्राह्मण तीनों मानते थे । शुगकाल से लेकर गुप्तकाल तक यक्ष सारी भारतीय कलाओं पर छाये हुए थे । कालिदास की कल्पना उसी से प्रेरित हुई होगी। साहित्य में यक्षों को संगीतादि ललित कलाओं में रुचि रखने वालों के रूप में चित्रित किया जाता है । उत्तमस्त्रीसहायाः --- ललिताङ्गनासहचरा. - मल्लिनाथ वरपुरन्ध्रिसहिताः - पञ्चिका उत्तमा चासौ स्त्री चौत्तमस्त्री। सा सहायः येषान्ते । उत्तमा का एक विशेष अर्थ है। अमरकोष के अनुसार - - यह वरवर्जिनी - का पर्याय है -- 'उत्तमा वरवर्णिनी ।' रूद्र के अनुसार -- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy