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________________ जैन साहित्य में वर्णित जन-कल्याणकारी संस्थाएँ भी लोकहित के ये कार्य होते थे, जिनका विवरण जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में दिया है। पूर्वमध्ययुग के जैन साहित्य में निम्नांकित जन-कल्याणकारी संस्थाओं का विवरण प्राप्त है १-प्रपा (पबा, प्याऊ) २-सत्रागार (निः शुल्क भोजनशाला) ३-मंडप (आश्रयस्थान, धर्मशाला) ४-आरोग्यशाला (औषधिदान) ५-सार्थ (यातायात-सुविधा, आजीविका-दान) ६-ग्रन्थभण्डार (ज्ञानदान, जानसुरक्षा) प्रपा : जैन आगमों के टीका साहित्य में कहा गया है कि स्थलमार्ग से यात्रा करनेवाले यात्री अपनी थकान मिटाने के लिए कई स्थानों में ठहरते थे । उनमें एक स्थान प्रपा भी थी। अनुयोगद्वारचूणि में प्रपा का अर्थ विश्राम-स्थल किया गया है ।११ बृहत्कल्पभाष्य में आगमनगृह, ग्रामसभा, प्रपा और मन्दिर का उल्लेख है. जो पथिकों के विश्राम-स्थल थे । १२ प्रपा में पथिकों के लिए पानी और नास्ते की व्यवस्था होती थी । थकान मिटाने के लिए छायादार वृक्ष अथवा झोपड़ी आदी भी उपलब्ध होती थी। चाणभट्ट के हर्षचरित के वर्णन से ज्ञात होता है कि प्रपा वास्तव में एक अच्छी प्याऊ थी। किसी बावड़ी अथवा कुए के पास पेड़ों के झुरमुट में इसे स्थापित किया जाता था, जो प्रमुख मार्ग पर विश्राम स्थल बन जाता था । १3 बाणभट्ट ने कहा है कि इन प्रपा में पानी रखने की विशेष व्यवस्था होती थी। पानी के साथ लाल शक्कर भी यात्रियों को दी जाती थी ।१४ ___ उद्द्योतनसरि ने कुवलयमाला में प्रपा, मंडप, सत्रागार आदि कल्याणकारी संस्थाओं को दान देने की परम्परा का वर्णन किया है । १५ ग्रीष्मऋतु में प्रपाओं में अधिक भीड़ रहती थी। वर्ष प्रारम्भ होते ही उनमें अधिक सुविधाएं जुटा दी जाती थी ।१६ ये प्रपाएं सामाजिक और सार्वजनिक स्थान होने के कारण सूचना-केन्द्र का भी काम देती थी। राजाज्ञा की घोषणा यहाँ करायी जाती थी ।१७ समाज में जनता को पानी उपलब्ध कराना समृद्ध लोग अपना कर्तव्य समझते थे । कृप, तालाब, वापी और प्रपा को दान देकर संचालित करना कई लोगों का परम धर्म था ।१८ उत्तराध्ययनटीका से ज्ञात होता है कि प्रपा में परिब्राजकों के लिए पर्याप्त अन्नपान दिया जाने लगा था। १८ धनपाल ने अपनी तिलकम जरी२० एव सोमदेव ने अपने यशस्तिलकचम्पू२१ में प्रपा की व्यवस्था होने का उल्लेख किया है। लम्बी यात्रा के बीच में प्रपा अथवा बावड़ी की व्यवस्था आधुनिक युग तक होती रही है । उदयपुर से चित्तौड़ जाने के पैदल रास्ते में सात प्रसिद्ध बावडियाँ स्थापित थीं । सत्रागार: सत्रागार भी प्रसिद्ध सड़कों के किनारे तथा प्रमुख स्थानों पर स्थापित होते थे । श्रेष्ठी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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