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________________ प्रेमसुमन जैन प्रेरणा दी थी । चौदह कुलकरों ने समाज को चौदह कार्यों की शिक्षा दी थी। यह घटना इस बात को सूचित करती है की समाज विभिन्न गुणी व्यक्तियों के सामूहिक प्रयत्न से चलता है और समाज में निर्भयता, आर्थिक स्वतन्त्रता, मैत्रीभाव तथा कल्याणकारी प्रयत्नों की नितान्त आवश्यकता है। कुलकरों एवं मन्वन्तरों की पौराणिक विचारधारा ने भारतीय समाज के विकास को गतिशील किया है । जैन परम्परा में तीर्थकरों के समवसरण की व्यवस्था का वर्णन है। इसका पौराणिक एवं धार्मिक प्रभाव कुछ भी रहा हो, किन्तु इसका समाज पर भी प्रभाव पड़ा । तीर्थकर जिन गुणों की प्राप्ति व्यक्तिगत प्रयत्नों के द्वारा करते हैं, उनका लाभ वे सनवसरण में सारे समाज को देते हैं । इससे व्यक्तिगत उपलब्धि का समाजीकरण का सिद्धान्त प्रतिफलित होता है। धार्मिक नेता अपनी स्वानुभूति से समाज को नैतिक बनाने का प्रयत्न करता है । शिक्षक या ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान से समाज को शिक्षित बनाता है । वैभवशाली श्रेष्ठिवर्ग व्यक्तिगत पुरुषार्थ से प्राप्त समृद्धि को विभिन्न लोकहितकारी कार्यों में व्यय कर सामाजिक-जीवन को उन्नत . बनाता है । इसी तरह बलशाली और क्षमाशील वर्ग समाज को सुरक्षा प्रदान करता है । प्राचीन भारतीय समाज के इस लोकहितकारी स्वरूप का चित्रण विभिन्न युगों के जैन साहित्य में उपलब्ध है । समाजशास्त्रियों के द्वारा उसका सामाजिक मूल्यांकन यदि किया जाय तो समाज निर्माण के कई तत्व प्राप्त हो सकते हैं । जैन साहित्य में प्राचीन परम्परी के प्रभाव से अनेक सामाजिक संस्थाओं के विवरण प्राप्त है। समाज की कुछ आधारभूत संस्थाएं है । विवाह, परिवार, जाति, वर्ण, श्रेणी आदि विभिन्न संस्थाओं के सम्बन्ध में जैन साहित्य से अच्छा प्रकाश पड़ता है । डा. जगदीश चन्द्र जैन, डा. नेमिचन्द्र शास्त्री आदि विद्वानों ने इस विषय में गहन अध्ययन प्रस्तुत क्येि हैं। जैन साहित्य के कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थों का भी समाजशास्त्रीय मूल्यांकन विद्वानों ने किया है। इस साहित्य में आधारभूत सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त समाज की कुछ धार्मिक संस्थाओं का भी विवेचन प्रस्तुत किया गया है | चतुर्बिघ संघ-व्यवस्था एक सामाजिक संस्था है जिसका स्वतन्त्र अध्ययन होना चाहिये । इसी तरह देवकुल, मंदिर, चैत्य, मठ, पाठशाला आदि भी सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं । इनके साथ समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध था । भारतीय समाज के विकास के अध्ययन के लिए जैन साहित्य की इस विषयक सामग्री की समीक्षा करना लाभदायक होगा । समाज की आधारभूत, धार्मिक एवं शैक्षिक संस्थाओं के अतिरिक्त समाज में कुछ ऐसी व्यवस्थाएं भी प्रचलित थीं, जिन्होंने लोकहित की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है । बिना किसी भेदभाब के समाज की ये संस्थाएं जन-सामान्य को लाभ पहुंचाती रही हैं । इन व्यवस्थाओं को जन-कल्याणकारी संस्थाएं कहा जा सकता है । जैन साहित्य में इनके पर्याप्त उल्लेख हैं, किन्तु उनकी तरफ विद्वानों का ध्यान कम गया है। आज जनजाति-कल्याण केन्द्र, धर्मशालाएं, सहकारी संस्थाएं, वृद्ध-संरक्षण केन्द्र, स्वास्थ्यकेन्द्र, प्याऊ, जनता-भोजनालय आदि कई लोकहितकारी संस्थाएं समाज में कार्यरत है । प्राचीन भारतीय समाज में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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