________________
जैन साहित्य में वर्णित जन-कल्याणकारी संस्थाएँ *
प्रेमसुमन जैन
जैन साहित्य में आत्महित और लोकहित इन दोनों के सम्बन्ध में पर्याप्त विवेचन है । आत्मविकास की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक गुणों की साधना करता है । ध्यान, व्रत, ज्ञान आदि के द्वारा वह आत्मा के पुरुषार्थ को जगाता है । किन्तु उसके इन आत्महितकारी गुणों का पूर्ण विकास लोक में ही होता है । व्यक्ति के सर्वागीण व्यक्तित्व का विकास क्रमशः होता है, छलांग लगाकर नहीं । इसलिए वह समाज में रहते हुए पहले नैतिक गुणों को साधना करता है, फिर आत्मिक गुणों की । लोकहित का सम्पादन करते हुए आत्महित की और गमन जीवन की सही प्रक्रिया है । इस बात को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने अपने साहित्य में समाज निर्माण के अनेक तत्वों का समावेश किया है । निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिमार्ग को जैन साहित्य में प्रमुखता दी गयी है । '
पृष्ठभूमि :
समाज की संरचना में व्यक्ति एक महत्त्वपूर्ण घटक है । व्यक्ति जब तक अकेला विचरण : करता है तब तक वह आत्मनिष्ठ रहता है । युगल हो जाने पर वह रागतत्व से युक्त होता है । दो युगल हों तो उसमें अनुकरणात्मक और स्पर्धा से युक्त जीवन पद्धति विकसित होती
1
। तीसरा युगल होते ही समाज का स्वरूप बनने लगता है। उसी के अनुसार आवश्यकताएँ, सुरक्षा और सद्भाव की प्रवृत्तिया विकसित हो जाती हैं । समाज के विकास की इस अवस्था का जैन साहित्य में एक मिथक द्वारा चित्रण किया गया है । भोगभूमि की युगल व्यवस्था को समाज व्यवस्था का प्रारम्भिक स्वरूप कहा जा सकता है ।२ प्रेमतत्व समाज का आधार स्तम्भ है, जिसका विस्तृत विवेचन जैन साहित्य में हैं ।
लोकहित सम्पादन के लिए समाज में अर्थतत्त्व भी आवश्यक है । स्माज का भवन आर्थिक नींव पर निर्मित होता है । इसके लिए जैनाचार्यों ने षड्-वाधान किया है । इसके मूल में व्यक्तिगत उपलिब्ध को सामूहिक बनाने की भावना रही है । जैन परम्परा में प्रचलित कुलकर-व्यवस्था समाज की स्थापना की व्यवस्था है । आदिपुराण में जिनसेन ने स्पष्ट कहा है कि मनुष्यों को कुल की तरह व्यवस्थित कर उनकी जीवनवृत्ति का परिष्कार करने के कारण ये कुलकर वहलाते थे
प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः । आर्याणां कुलसंस्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ॥ ४
इन कुलकरों ने निषेधात्मक, नियन्त्रणामक एवं कल्याणात्मक कार्यों के लिए सम्मान को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org