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________________ प्रेमसुमन जैन और दानी लोगों के दान से इनका संचालन होता था । सत्रागारों में पथिकों को निःशुल्क भोजन दिया जाता था । भोजनदान की परम्परा भारतीय समाज में अतिप्राचीन है । २२ बौद्ध एवं जैन साधु भोजन के लिए समाज पर ही आश्रित हैं । उनको आहार-दान देना श्रावक का दैनिक नियम था ।२३ अतः इस प्रकार की प्रवृत्ति समाज के अन्य व्यक्तियों के लिए प्रारम्भ हो गयी थी। इसके लिए घरेलु रसोई के अतिरिक्त कई सामाजिक भोजनशालाएँ प्रारम्भ हो गई थीं, जो राहगीरों, साधुओं एवं निराश्रितों के लिए जीवनाधार थीं । प्राकृत साहित्य में निःशुल्क भोजनशाला के लिए कई शब्दों का प्रयोग हआ है। ज्ञाताधर्मकथा तथा निशीथसूत्र में ऐसी एक महानसशाला का उल्लेख है, जिसमें अनेक प्रकार का भोजन साधु सन्तों, अनाथों, भिखारियों और पथिकों को बांटा जाता था ।२४ ईस महानसशाला के साथ पुष्करिणी, वनखण्ड, चित्रसभा, चिकित्साशाला एवं अलंकार-सभा भी थी, जो जन-सामान्य के उपयोग के लिए थीं ।२५ बहत्कल्पभाष्य में ऐसी भोजन-व्यवस्था को संखडि और भोज्य कहा है, जो एक दिन अथवा कई दिन तक चलने वाली होती थीं । २६ पालि में इसे संखति कहा गहा गया है ।२७ इस संखडि में भोजन पाने वालों की बहुत मीड़ लगी रहती थी । आगे चलकर संखडि एक विशेष प्रकार का दोष-युक्त उत्सव हो गया था । इसके सम्बन्ध में डा० जगदीश चन्द्र ने विशेष प्रकाश डाला है ।२८ बुधस्वामि के वृहत्कथाश्लोकसंग्रह की सानुदास की कथा से ज्ञात होता है कि पाण्ड्य देश के मदुरा नगर के बाहर एक सत्रागार था । २८ वहाँ पर यात्रियों की सब प्रकार से सेवा की जाती थी, जिससे उनकी थकान दर हो जाय । इस सत्र को सत्रपति होता था, जो व्यापारियों की समस्याओं को यथासंभव दूर करने का प्रयत्न करता था अन्य सत्रागारों से भी सत्रपति सम्बन्ध रखता था । इस सन्दर्भ से ज्ञात होता है कि जैन साहित्य में वर्णित सत्रागार मध्ययुग की सराय जैसे थे ।३० कुवलयमाला के सन्दर्भ से स्पष्ट है कि सत्रागार में पथिकों को निःशुल्क भोजन दिया जाता था। इनका संचालन समृद्ध व्यापारी लोग करते थे । ३२ किन्तु प्रबन्धचिंतामणि से ज्ञात होता है कि सत्रागार प्रजापालक राजाओं द्वारा बनवाये जाते थे ।३३ मंडप: भारतीय समाज की लोक-कल्याणकारी संस्थाओं में मंडप का विशेष महत्व था । प्रपा से पानी की व्यवस्था हो जाती थी और सत्रागार से निःशुल्क भोजन की, किन्तु पथिक के लिए रात्रि व्यतीत करने अथवा विश्राम करने के लिए भी प्राचीन समाज ने कुछ व्यवस्थाएं की थीं । दामोदर गुप्त ने अपने कुटनीमतम्३४ में एक राहगीर के ठहरने की समस्या का जो चित्रण किया है, वह उसकी दुर्गति का परिचायक है । राहगीर को रात्रि में अभय, सुरक्षा और विश्राम मिल सके इसके लिए समाज ने ऐसे विश्राम-स्थलों की व्यवस्था की थी। प्राचीन समाज में राहगीरों के लिए जो विश्राम-स्थल होते थे उन्हें ऋग्वेद में प्रपथ कहा गया है ।३५ अथर्ववेद में आवसथ शब्द का प्रयोग हुआ है । डा० मोतीचन्द्र ने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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