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समाप्तावभिषेकस्य विषायावभृथाप्लवम् ।। सुधान्धसो ममत्यूयं पूजयामासुराहताः ॥१७n. गन्धैधूपैः प्रदीपैश्च कुसुमैः साक्षतोदकः । , समन्त्रैश्च फलैः सपिरान जगदर्चितम् ॥१७८॥ शचीपतिरथो शच्या समं तं जुगत परिम् । परीत्य च त्रिधा शुद्ध्या प्रणनाम महाशयः ॥७९|| पपात नभसः पुष्पवृष्टिः सौमसत्ता परागपिञ्जरा सान्द्रमकरन्दाऽतिशतला ॥१८०॥ इत्थं निवर्तयामासुः श्रीजिनस्नपन्ोत्सवम् । सुरेन्द्रायाः समम् देव-देवीवृन्दः परिद्वताः ॥१०१३ आहवयन् पावनामानमिति सर्वे सुरासुराः । जयमङ्गलघोषैस्तम् प्रगोमुभक्तिनिर्भराः ॥१८२।। अथ प्रसाधनं चक्रे शची सर्वाङ्गसङ्गतम् ॥ . प्राग् दिव्यैरंशुकैजैनं वपुः सार्दै ममानै सो ॥१८३॥ . सद्गन्धबन्धुरैर्यक्षकर्दमैरन्वलिम्पत। विश्वैकतिलकस्यास्य ललाटे. तिलकं व्यधात् ।। १.८भा
१४) अभिषेक की समाप्ति पर, अवभृय भार्मिक स्नान स्नान करके समाप्त होकर जगत्पस्य जिनदेव की पूजा करने लगे । (१५८) मन्त्र, धूप, दीप, मुष्प, अक्षत, . हल, मल: व प्रलों से, जगत्पूज्यजिनदेव को वे आने लगे । (१४) उताराशयः इन्द्र अबनी मी इबाणी के साथ अगत्पति को, तीन शुद्ध परिक्रमा के साथ प्रणाम करने लगे । (१८२) अरनि । मनोहार, पराग से कपिश, मकरन्द से भरपूर, अतिशीतल पुष्पवृष्टि आमन्त्र से होने लगी। (143) इस प्रकार देवी देवताओं ने एकत्रित होकर, एक साम भगवान् किलदेव के स्नान - पाल्पा सम्पन्न किया । (१८२) देव एवं असुर सभी ने उन्हें पार्श्व' नाम से पुकाग। . जयमालनि से भकिविभोर होकर (सभी ने) उन्हें प्रणाम म्यिा । (१८३) हामी ने पहले --- अन्दा बों से भगवान के गोले बदन को स्वच्छ किया । और इसके बाद (भवान् के). बबी, को प्रसाधित किया (सजाया) - (१८४) (इन्द्राणी ने) सुशोभित यक्षार्दम (चूर्ण) से शरीर को लिप्त करके विश्वश्रेष्ठ जिनदेव के ललाट पर खिसक किया । .. .
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