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________________ श्रीपानांचरितमहाकाव्य अथ दौवारिकैर्देवैः कृतकृतिमि वनै । . कृतसंज्ञास्तदा औषमासुः सामानिकामराः ॥१६९॥ अथ प्रारब्धवान् स्नानं दिव्यगन्धोदकैर्हरिः । गन्धलो भ्रममगारोदरसस्थितैः ॥१७॥ गन्धाम्बुधारा शुशुभे पतन्ती जिनविग्रहे । तदङ्गसौरमणैव निर्जिताऽऽसीदधीमुखी ॥१७१। मण्डलायोग्रधारेव प्रत्यूहव्यूहवैरिणाम् ।... सैषा गन्धाम्भसा धारा दद्याद् वो मङ्गलावलीम् ॥१७२॥ वन्या दिविषदां गन्धाम्बुधारा विश्वपावी । ईशाङ्गसङ्गप्ताऽसौं स्वधुनीव पुनातु नः ॥१७३॥ एवं गन्धोदकैः स्नात्रं विधाय विबुधाधिपाः ।। जगच्छान्य ततः शान्तिघोषणां चक्रुरुच्चकैः ॥१७४॥ तद्गन्धाम्बु गृहीत्वा ते सुराः स्वीयाङ्गसङ्गतम् । विदधुर्मङ्गलार्थ तज्जगन्मङ्गलकारणम् :॥१७५॥ तत्प्रान्तेऽथ जयारावमिर्गन्धाम्बुभिस्समम् । वायोक्षी चक्रिरे देवाः संचूर्णैः कृतसम्मदाः ॥१७६॥ १९) जिन्होंने हुँकार शब्द किये हैं ऐसे दौवारिक देधों से संकेत पाये हुए सामानिक देव चुप हो गये । (१७०) इसके बाद गन्ध के लोम से भ्रमण करते भ्रमरोंवाले, पात्रगत दिव्य गन्धोदक से इन्द्र ने स्नात्र का प्रारम्भ किया । (१७१) भगवान् जिन के दिव्य शरीर पर गिरती हुई सुगन्धित जल की धारा मानों उनके अ की खुशबू से निर्जित नीचे की ओर मुख किये हुए शाभित हो रही थी । (१७२) विघ्नव्यूहरूप शत्रुओं के लिए तल. वारको उग्र अग्रेधारा की भांति वह गन्धजल को धारा आप सबका कल्याण करें । (१७३) देवताओं की वह सुगन्धित जलधारा जो विश्व में व्यापक है और जो पूज्यनीय है, ईश्वर जिना के अ सम्पर्क से पवित्र गंगानदी को भांति हमे पवित्र करें । (१७४) इस प्रकार इन्द्री ने गन्धजल से स्नान करके जगत् को शान्ति के लिए जोर से शान्ति को घोषणा की। Mi4) सभी देवतालोग उस गन्धजल को लेकर अपने स्वयं अड़ों में कल्याण के लिए लगाये में क्योंकि वह जल संसार के कल्याण का करने वाला था । (१७६) उसके (स्नात्रक) अंत में प्रधनि से मिश्रित और चूर्गयुक्त गन्धोदक के साथ पवन को मदमस्त देवों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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