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श्रीमानायचरितमहाकाव्य
विश्वविश्वकिरीटस्य न्यधान्मूर्ध्नि पुलोमजा । मन्दारकुसुमोशंस तेनातीव बभौ विभुः ॥ १८५ ॥
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त्रिविष्टपस्फुरच्चूडामणेरस्य शिरस्यथ । चूडामणि निघते स्म मघोनी स्नेहनिर्भरा ॥ १८६॥ इन्दीवरनिमे स्निग्धे लोचने विश्वचक्षुषः । शची चक्रेऽञ्जनाचा बभौ तेन निरञ्जनः ॥ १८७॥
भवाधिकर्णधारस्य कर्णयोः कुण्डले दधौ । द्रष्टुं तन्मुखजां शोभां पुष्पदन्ताविवागतौ ॥ १८८॥
मुक्तिकण्ठहारस्य तारहारी मनोहरः । न्यस्तस्तया सुकण्ठस्य कण्ठशोभां दधौतराम् ॥ १८९ ॥
आजानुबाहोर्यद् बाहुद्वयं केयूरमण्डितम् । तद्भूषणाङ्गकल्पद्रुशाखाद्वैतमिव व्यभात् ॥ १९०॥
कटीतटेsस्य विन्यस्तं किङ्किणीभिः सुभासुरम् । काञ्चीदाम स्फुरद्रत्नरचितं निचितं श्रिया ॥१९१॥ चरणौ किरणोद्दीप्तैः स्फुरद्भिर्मणिभूषणैः । गोमुखोद्भासिभिर्न्यस्तै रेजतुर्जगदीशितुः
॥१९२॥
(१८५ ) इन्द्राणी ने सम्पूर्ण विश्व के मुकुट रूप जिनदेव के मस्तक पर मन्दार पुष्पों की अलंकृत मालों रखी जिससे भगवान अत्यन्त शोभित हो रहे थे । (१६) इन्द्राणी ने बड़े प्रेम के साथ स्वर्ग के चूडामणिरूप इन जिनदेव के मस्तक पर चूडामणि स्थापित की । (१८७) उस इन्द्राणी ने विश्व के एकमात्र नेत्र उन जिनदेव के कमल के समान स्निग्ध नेत्रों में अब्जन लगाया जिससे वह निरज्जन देव बहुत ही शोभित हो उठे । (१८८) संसार सागर के एकमात्र कर्णधार उन भगवान् के कानों में इन्द्राणी ने कुण्डल पहनाए मानों उनकी मुखशीमा को देखने के लिए सूर्य और चन्द्र भा पहुँचे हों । (१८९) उस इन्द्राणी के द्वारा सुन्दर कण्ठवाले भगवान् को पहनाया गया मुक्तिरूपी स्त्रो के कण्ठ का मनोहर उज्ज्वल 'हरि' प्रभु के कण्ठ की शोभा को धारण करता था । (१९०) घुटनों तक भुजावाले उन जिनदेव भुजबन्ध से सुशोभित दोनों बाहु उनके आभूषणों के महरूप कल्पहुम की दो शाखाओं के समान सुन्दर दिखाई देते थे । (१९१) घूँघरियों से चमकता हुआ, दमकते हुए रनों बना हुआ एवं शोभायमान कन्दोरा उनकी - ( भगवान् की ) कमर में पहनाया । ( १९२ ) किरणों से गोमुखों से प्रकाशित, देदीप्यमान पहनाये गये मणिभूषणों से उस जगत्पिता के दोनों चरण अतीव शोभित हो रहे थे।
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