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________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य प्रैवेयके स मध्यम[मध्यम]नामनि बभूव ललिताङ्गः 1. अणिमादिविभूतियुतोऽहमिन्द्रतां प्राप सुरपूज्यः ॥८२॥ .. स च सप्तविंशतिमिताम्भोनिधितुल्यायुरिद्धदिव्यर्द्धिः ।" आसीद् दिव्यशरीरो दिव्यसुखान्येष भुङ्क्ते स्म ॥८३॥ सम्यग्दर्शनिनो हि धैर्यमतुलं दुर्गोपसर्गेऽपि यदिष्टान्तं विगणय्य चिन्मयपरब्रह्मैव नित्यं स्मरन् । बाहये वस्तुनि निर्ममः सदृशदृक् शत्रौ च मित्रे मुनि स्तस्य स्वर्गपदं न दूरविषयं यद्वा सुनिःश्रेयसम् ॥८४॥ इति श्रीमत्परांपरपरमेष्ठिपदारविन्दमकरन्दसुन्दररसास्वादसम्प्रीणित भव्यभव्ये पण्डितश्रीपद्ममेरुविनेयपण्डितश्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्री पार्श्वनाथमहाकाव्ये श्रीपार्श्व. भवसप्तकशंसनः नाम प्रथमः सर्गः । - (८१-८२) मृत्यु के समय विशुद्धलेश्या वाला, शरीर के प्रति ममत्वरहित, साम्यामृतमें मग्न वह मुनि शुभ आराधना करके, मध्यम-मध्यम नामक पंचम अवेयक (स्वर्ग) में ललिताङ्ग देव बना और अणिमादि ऐश्वर्य से युक्त, अहमिन्द्रत्व को प्राप्त कर सुरपूज्य हुआ । (८३) सत्ताइस सागरोपम आयु वाला वह, वढ़ी हुई दिव्य ऋद्धओं से युक्त, दिव्य शरीरधारी, दिव्य सुखों का उपभोग करता था ॥ (८४) जो सम्यग्दर्शी होने से भयंकर उपसर्ग में भी अतुल धैर्य रखता है और उपसर्ग के परिणाम को इष्ट समझता है, जो चिन्मय परब्रह्म का नित्य स्मरण करता हुआ वाह्य वस्तुओं में निःस्पृह बना रहता है, जो शत्रु-मित्र में समदर्शी है उस मुनि के लिए न तो स्वर्ग पद को प्राप्ति दूर है न मोक्षपद की ॥ इति श्रीमान् परम परमेष्ठि के चरणकमल के मकरन्द के सुन्दर रसके आस्वाद से ., भव्यजनों को प्रसन्न करने वाला, पं. पद्ममेर के शिष्य , पं० श्री पद्मसुन्दर कवि द्वारा रचित श्री पार्श्वनाथ महाकाव्य में श्री पार्श्वनाथ के सात भवों का वर्णन करने वाला - प्रथम सर्ग समाप्त हुआ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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