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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित शास्त्रेऽधीती विद्वान् मूलोत्तरगुणगणेषु स प्रयतः । समितिषु पञ्चसु समितस्त्रिगुप्तिगुप्तो विशेषेण ॥७४।। कुर्वन्नुप्रतपस्यां कर्मोपशमात् लब्धिमानभवत् । विचरन् सुकच्४ विजयं जगाम वाचंयमस्तत्र ॥७॥ ज्वालनाहयादिनिकटे निम्रन्थो निर्ममः स विचचार । सर्वत्राप्रतिबद्धश्चकार रात्रौ तनूत्सर्गम् ॥७॥ यो दन्दशूकजीवः पञ्चमनरके स नारकोऽथाभूत् । तत उद्वयं कियन्तं कालं बभ्राम भवगहने ॥७७॥ सोऽप्यथ ज्वलनाद्रितटे भोमाटव्यां वनेचरो जज्ञे । मृगयावृत्ति कुर्वन्नुर्वीधरसविधमासाद्य ॥७८॥ - .. रजनीविभातसमये चलितुमना मुनिरथो किरातस्तु । दृष्ट्वा तं मुनिपुङ्गवमपशकुनं मनसि मन्वानः ॥७९॥ विव्याध शरेणाऽसौ तद्बाणवणमहाव्यर्थी सेहे । धर्म ध्यानधियं धुरि धन्यः समधत्त निरपेक्षः ॥८॥ प्रान्ते समाहितमतिर्वपुषि निरीहो विशुद्धलेश्यावान् । ___ साम्यामृतरसमग्नो मुनिः शुभाराधनां कृत्वा ॥८१॥ (७४) वह मूलगुण और उत्तरगुण में संयमवाला, शास्त्रज्ञ व विद्वान्, पञ्च समितियों से समित और विशेषकर तीन गुप्तिओं से गुप्त था ।। (७५) उग्र तपस्या करता हुमा कर्मों के उपशम से वह लब्धिमान बना तथा भ्रमण करता हुभा संयमी वह सुकच्छविका नामक स्थान (विजय) में चला गया ॥ (७६) ज्वालनपर्वत के निकट निद्वेन्द्र तथा ममता रहित होकर वह घूमने लगा । सभी विषयों से मुक होकर रात्रि में उसने -कायोत्सर्ग किया । (७) पांचवे नरक में जो दन्दशूक जीव (=कमठ ) नरकरूप में या वह वहां से निकलकर समय गहन संसार में भ्रमण करने लगा।। (७८) वह भी घालमपर्वत के तट पर भयंकर भोमा नामक जंगल में वनेचर हुआ। शिकारी की आजीविका करता हुभा वह पर्वत के पास पहुँचा ।। (७९८०) रात्रि के समाप्ति समय जब मुनि चलने को उद्यत हुआ तब जाते हुए उस मुनिश्रेष्ठ को देखकर मन में अपशकुन मानते हुए उस किरात ने उसको बाण से बांध दिया । उस मुनि ने उस बाण के घाव की भयंकर पीड़ा को सहन किया । धर्मध्यान में बुद्धि लगाकर वह रिभिलाषी धन्य हो गया ॥ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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