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________________ श्रीपनाथचरितमहाकाव्यं क्रमेण वरुणा तत्र विपथैवोदपथ । करेणुः स तया रेमे श्यामासु वनराजिषु ॥२८॥ Jain Education International वन्यद्रुमाम् विदलयन् निजकर्णता - गुम्मधुत्रतगणं कटदानलुब्धम् । आस्फालयन् विहितबृंहितनाद एष शिश्लेष तत्र करिणीं करलालनेन ||२९ ॥ कान्तया स विचचार कानने सल्लकी कलमर्पितम् तथा । तं चखाद जलकेलिषु स्वयं तां सिषेच करसीकरैर्गजः ||३०|| अन्यदा स किल पोतनेश्वरः खिरस्थितोऽम्बरे ! शारदाश्रमुदयाद्रिसन्निभं वायुना विघटितं निरैक्षत ||३१|| इत्यनित्यमखिलं जगद् विदन् राज्यसम्पदम् अमंस्तं गत्वरीम् । स्वापतेयमखिलं तु पात्रसात् स चकार सच्चकार चातिथीन् ॥ ३२ ॥ (२४) समय आने पर ( कमठ की परमी) वरुणा भी मरकर हाथिनी बनी और वह हाथी भी उस दाधिनी के साथ हरित श्यामल वनपंक्तियों में रमण करने लगा । (२९) बन्य वृक्षों को नष्ट करता हुआ, गण्डस्थल के दानवारी मैं लुब्धक बने हुए, गुजार करते भ्रमर समुदाय को कर्णप्रहार से ताड़ित करता हुआ, गर्जना का शब्द करता हुआ वह गुण्डा के सञ्चालन से हथिनी को आलिङ्गन करने लगा || (३०) वह ( मरभूति ) हस्ती बन में उस हथिमी के साथ विचरण करने लगा। उस हथिमी के द्वारा दिये गये सल्लकी घास के ग्रास को वह खाता थी और जलकाओं में वह अपनी सूड के जल से उस हथिनी को खुद ही सींचता था ॥ (३१) कूप दिन पोतनेश्वर अरविन्द नृप मे स्वच्छ प्रासाद शिखर पर बैठे हुए आकाशमण्डल मैं पर्वतसंहरा शारदी बादल को वायु से छिन्न भिन्न होते हुए देखा || (३२) इस पर से वह ( राजा अरविन्द ) इस सम्पूर्ण ससार को अनित्य जानकर राज्यसम्पत्ति को भी चन्चल मानने लगा | उसने सम्पूर्ण वैभव को योग्य तथा अधिकारों पात्रों को प्रदान कर दिया और अतिथियों का सत्कार किया ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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