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पासुन्दरसूरिविरचित सोऽपि जातविशदावधिस्तदा स्वाङ्गजार्पितनृपत्ववैभवः । सारङ्गविरतः क्षमारतः प्रत्यपद्यत स संयम सुधीः ॥३३॥ नाप्यलिप्यत सदाऽरविदवतू सोऽरविन्दमुनिपो भवाम्बुनि । ... निर्ममः स निरहकृतिः कृती निष्कषायकलिसान्तरिन्द्रियः ।।४॥ ईयया स च विशुद्धया चरन भाषमाण इह शुद्धभाषया । एषणासु निरतो ग्रह-क्षिपोसगवर्गसमितिष्धनारतम् ॥३५॥ कायमानसवचः सुसंवृतो ज्ञानदर्शनचरित्रसंयुतः । निःस्पृहः स विचचार भृतले जैनलिङ्गपदवीमुपाश्रितः ॥३६॥ सम्मेतमीडितुमसो सह सागरेण । सार्थाधिपेन सहितः सुहितः प्रतस्थे । प्राप्तः स विन्ध्यनगकुब्जककाननान्त
स्तत्र स्थितः प्रतिमया निशि निष्प्रकम्पः ॥३॥ (३३) उस राज ने निर्मल अवधिज्ञान प्राप्त कर अपने पुत्रों को सम्पूर्ण राजवैभव सौंप दिया। स्वयं अनासक्त तथा क्षमाशील बनकर उम. विद्वान राजा ने संयम स्त्रोकार किया । (३४) कमल को भाँति वह अरविन्द मुनिराज भवजल से समा अलिप्त ही रहा । ममाता व अहंकार रहित होते हुए उसने हृदय को ( क्रोध, मान, माया और लोभ-इन कषायों, मुक्त कर लिया ॥ (१५) विशुद्ध ईयर्यासमिति से वह इधर-उधर विचरण करता था, विशुद्ध, भाषासमिति से भाषण करता था, एषणासमिति में रक्त था; भादानसमिति, तिक्षेपममिति और उत्सर्गसमिति इन समितियों में सतत जामत वह मनिराज मा ॥ (३६) मन, वचन, व काई, से सुसंवृत सम्यम् ज्ञान, सम्यग् दर्शन तथा सम्मा चरित्र से युक्त और निःस्पृह-या वह पृथ्वी पर जिनलक्षण (जैन) पदवी को प्राप्त करते हुए घूमने लगा । (३५) सम्मेतशिखर पर्वत की यात्रा करने के लिए उसने सार्थवाइ सागर के साथ प्रस्थान किया और विन्ध्याचल पर्वत के कुन्जक वन के अन्तःपदेश में पहुँचा तथा वहीं रात्रि में प्रतिमा ल्यान) में निश्चल होकर खड़ा रहा ।
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