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________________ अरिष्टासुर का संहार दुइ अडिदेउ विसवे सें सिंगजुयलर्स चालियगिरिसिलु सरवर वे जाल विलुलियगड जय रवपूरियभुवणं तरु सहकिरणणियरङ्कुश्रु किर शड णिविड देइ भावेपिशु मोटि कंठु कति विर्सिद हु भोहामियधवलु धवलाण विधत्रलु Jain Education International वर्षावर्णन : गोवर्धनोद्धरण : काले जंते छज्जइ पत्तउ हरि गोउलि धवलहिं गिज्जइ । कुलधवल केण ण थुनिज्जइ ॥ ('महापुराण', ८५-१२-८ से १६) 'मधुराधिपति कंस के आदेश से दुष्ट अरिष्टासुर वृषभ के वेश में आया । युगल गों से गिरिशिला उखादता हुआ, खर खुराग्र से धरणीतल खोदता हुआ, गले से हिलतें - डुलते सरोवर-वल्ली के जालों से युक्त, पदाघात से जलस्थल को कम्पित करता हुआ, गर्जनारव से भुवनांतराल को भर देता हुआ, महादेव के मन्दिगण को भी भय से ज्वरित करता हुआ, चन्द्रकिरणों से भी अधिक शुभ्र, कैलास के उच्च शिखर की शोभा को धारण करता हुआ वह वृषभराज आकर गहरी चोटें दे न दे इतने में ही कृष्ण ने अपने भुन्दंडों से उसका कंठ कड़कड़ाहट के साथ मोड़ दिया । गोविन्द का प्रतिमल्ल तीन भुवनों में भी कौन हो सकता है भला ? धवल को पराजित करनेवाला हरि गोकुल में भवल-गीतों में गाया जाता है । भवलों में भो जो धवल है उस कुलधवल की स्तुति कौन नहीं करता १* हरियड पीयलडं उषरि पओहरह दिउ इंदचाउ पुणुपुणु वणवारण बेसि णं हरिवल्लभ भायाणी जलु गलइ दरि भरइ तडयडइ गिरि फुडइ मद चलइ घन्ता घन्ता 7 दुबई आउ महुर वइआए । खरखुरंग उक्खय चरणीयतु । कम शिवाय कंपावियजलथल | हरवरषसहणिवह कयभयचर । गुरूकेलास सिहरसोहाहब । ता कण्हे भुयदंडे लेप्पिनु । को परिमल तिजगि गोविंदडु । आसाद' गमि वासारतउ er जण सुरु | णं णलच्छिहि उप्परियणु ॥ अह पथियहिययमेवहो । मङ्गलतोरणु णहणिकेयहो ॥ झलझलड़ सरि सरइ तडि पडइ सिहि ण्डइ तर धुलइ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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