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अपभ्रंश सा
अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य
में कृष्णकाव्य
जलु थलु वि गोउलु वि णिरु रसिउ भयतमिउ थरहरह
किर मरह बा ताब
थिरभावधीरेण
वीरेण सरलच्छि
जयलच्छितण्हेण
कण्हेण सुरथुइण
भुयजुइण वित्थरिउ
उद्धरित महिहरउ
दिहियरउ तमबडिउं
पायडि महिविवर
फणिणियरु फुफ्फुवइ
विसु मुयइ परिघुलह
चलवलइ तरुणाई
हरिणाई तट्ठाई .. णट्ठाइ' .. काय
वणयरई. पडियाई
रडियाई' चित्ताइ
चत्ताई .. हिंसाल
चंगल चंडई
कंडाई
परवसई दरियाई
जरियाई
घत्ता गोवद्धणपरेण
गोगोमिणिभारु व जोइउ । गिरि गोवरण
गोवद्धणेण उच्चाइउ । . . ('महापुराण', ८६-१५-१० से १२, १६-१ से १२)
कुछ समय के पश्चत् आषाढ मास में बरसात आ कर सोभा दे रहा । लोग हरित और पीत वर्ण का सुरधनु देखने लगे । मानों वह नभलक्ष्मी के 'पयोधर' पर रहा हुआ उत्तरीय हो । पथिकों के हृदय विदारक इस इंद्रचाप को वे बारबार देखने लगे। मानों वह बगनगह पर पमहस्ती के प्रवेश के अवसर पर लगाया गया मंगल तोरण हो । बल मलाल बाद से गिर रहा है। सरिता बहत हुई खोह को भर देती है। तड़तडा कर तडित् पडती है। जिस से पहाड फटता है । मयूर नाच रहा है । तरुओं को घुमाता पवन चल रहा
। गोकुल के सभी जलस्थल भयत्रस्त हो कर थरथराते हुए चीखने लगे। उन्को मरणमय मत देख कर सरलाक्षी जयलक्ष्मी के लिये सतृष्ण घोरवीर कृष्णने सुरप्रशस्त पुज्युगल
तावरूई
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