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हलिल्लम भायाणी * जेहउ दिण्णउ आसि
तं तेहउ समावडइ । - किं वयए कोद्दवधण्णे
सालिकणिसु फले णिवडा॥
(६-१४, पसा) 'बसा देते वैसा पाते । क्या कोदों बोने से कभी धान न पजेगा ?' हस्सोह वि सोहा रूववइ । (७-१-४ ) 'रूपस्विनी शोभाहीन होने पर भी सुहाती है।'
६. पुष्पदंत
चतुर्मुख और स्वयम्भू के स्तर के अपभ्रंश महाकवि पुष्पदन्तरचित 'महापुराण (रचनाकाल है. ९५७-९६५) के सन्धि ८१ से ९२ जैन हरिवंश को दिए गए है । सं. ८४ में वासुदेवजन्म का, ८५ में नारायण की बालक्रीड़ा का और ८६ में कंस एवं चाणूर के संहार का विषय है । वर्णनशैली, भाषा और छन्दोरचना संबन्धित असाधारण सामर्थ्य से संपन्न पुष्पदन्त ने इन तीन . सन्धियों में भी कुछ उत्कृष्ट काव्यखण्ड निर्माण किए हैं । उसने कृष्ण की बालक्रीडा का निरूपण .. पुरोगामी कवियों से अधिक विस्तार और सतर्कता से किया है । पूतना, अश्व, गर्दभ एवं यमलार्जुन इन उपद्रवों के वर्णन में (८५-९,१०,११) अष्टमात्रिक, तथा वर्षावर्णन में (८५-१६) पंचमात्रिक ऐसे लघु छन्दों का उस का प्रयोग सफल रहा है और इस लय का सहारा लेकर चाह ध्वनिचित्र निर्माण करने की अपनी शक्ति की वह प्रतीति कराता है । ८५-१२ में प्रस्तुत अरिष्टासुर का चित्र एवं ८५-१९ में प्रस्तुत गोपवेशवणेन भी ध्यानाहे है। पुष्पदन्त के युद्धवर्णन-सामर्थ्य के अच्छे उदाहरण ८६-८ में (कंसकृष्णयुद्ध) और ८८-५ से लेकर १५ तक (कृष्णजरासन्धयुद्ध) हम पाते हैं । कुछ चुने हुए अंश नीचे दिए है ।
नवजात कृष्ण को ले जाते हुए वसुदेव का कालिन्दीदर्शन :ता कालिंदि तेहिं अवलोइय मंथरवाग्गिामिणी ।' गं सरिस्षु धरिवि थिय महियलि घणतमजोणि जामिणी ॥ णारायणतणुपहपंती विव
अंजणगिरिवरिंदकंती विव महिमायणाहिरइयरेहा इव बहुतरंग जरहयदेहा इव महिहरदैतिदाणरेहा इव कंसरायजीवियमेरा इव वसुहणिलोणमेहमाला इव साम समुत्ताहल बाला इव णं सेवालवाल दक्खालइ. फेणुप्परियणु णं तहि घोलाइ गेरुयरत्तु तोउ रत्तवरु णं परिहा चुयकुसुमेहिं कव्वुरू किणरिथणसिहाइ णदावइ विभभेहिं णं संसउ पावइ फणिमणिकिरणहिं णं उबोयइ। कमलच्छिहिं णं कण्हु पलोयह भिसिणितथालेहि सुणिम्मल उच्चाइय णं जलकणतंदुल १. यह उत्प्रेक्षा स्वयम्भू से प्रभावित है । देखिये, 'रिणेमिचरिय', ६ १-२.
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