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________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकांग्य भन्यस्थानीय पत्ता में सघती है वहां पराकाष्ठा कोई तीक्ष्ण उपमा, उत्प्रेक्षा या रूपक बैसे अलकार से अभिव्यजित की गई है। कडवक का समापन एक रमणीय बिम्ब से होता है, बो चित्त को एक स्मरणीय मुद्रा से अंकित कर देता है । इन पराकाष्ठाद्योतक बिम्बों में स्वयम्भू की मौलिक कल्पनाशक्ति के अभिनव उदयन एवं प्रगल्भ विलास के दर्शन हम पाते 1 और उनकी सूक्ष्म रधि से हम कई बार प्रभावित हो जाते हैं। कुछ उदाहरण देखिए यह है पूतना के विषलिप्त स्तन को दोनों हाथों से पकड़ कर अपने मुंह से गाते हुए बालकृष्ण : सो था धारधवा हरिउहयकरतरे भाइयउ। पहिलारउ असुराहयणे ण पचजण्णु मुहि लाइयउ ॥ . 'पूतना का दुरधधारा से धवल स्तन हरि के दोनों करों में ऐसा भाता था वैसा असुरसाहार के लिए पहले पहले मुंह से लगाया हुआ पांचजन्य ।' छठवे सन्धि के सातवें कडवक को धत्ता में धोबी से लूट लिए गए वस्त्रों में से बलदेव श्याम वस्त्र एवं कृष्ण कनकवण वस्त्र जो खींच लेते हैं उस घटना कंस के काला और पीला पित्त खींच लेने की बात से उत्प्रे क्षत की गई है। वैसे ही दासी से विलेपन द्रव्य और उसको ग्वालों में बांट देने की बात चाणूर के जीवित को बाँट देने की उत्प्रेक्षा से वर्णन की गई है। अखाड़े में इधर उधर घूमते हुए कृष्णबलदेव का प्रेक्षकों पर को प्रभाव छा गया उसका वर्णन इस तरह हुआ है : जहां जहां बलिष्ठ कृष्ण एवं बलदेव घूमते थे, वे रंगस्थल उनकी देहप्रभा से कृष्णवर्ण एवं पांडुरवर्ण हो जाते थे। अपराजित और जराकुमार के युद्ध के वर्णन में अक उद्भट उत्प्रेक्षा दी गई है : विधतेहिं तेहि बाणणिरंतर गयणु किउ । . . . सभुवंगमु सव्वु उपरे णं पायालु थिउ ॥ .. (७-७, पत्ता) . 'भन्योन्य को बींधते हुए उनके वाणों से गगन निरंतर छा गया । मानों सर्पसहित सारा पाताल ऊँचे उठ कर स्थगित हो गया हो ।' द्वारिकानिर्माण के लिए भूमिप्रदान करता हुआ समुद्र पिछे हट जाता है यह बात भी एक सुन्दर उत्प्रेक्षा से प्रस्तुत की गई है : लक्ष्य लच्छि कोत्थुहु उद्दालिउ, एवहिं काई करेसइ आलिउ । एण भएण जलोहरउद्दे, दिण्ण यत्ति णं हरिहे समुढे ॥ ( ७-८, आदिघत्ता) 'पहले कौस्तुभमणि झपट लिया था और लक्ष्मी भी ले गए थे । अब न मालूम ' और कौन-सी शरारत करेंगे - मानों इस भय से समुद्र ने हरि को जगह दे दी। क्वचित कहावतों और सदुक्तियों का भी समुचित उपयोग मिलता है जैसे कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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