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हरिवल्लभ भायाणी
उसे ग्वालों को सौंप कर उस समय बलदेव ने संमुख आते हुए आपने भाई कृ भालिंगन दिया । मानौं प्रतिपदा के दिन शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष को भेटा ।'
संग्राम के वर्णनों में स्वयम्भू की कला पूर्ण रूप से प्रकटित होती है । 'हरिवंश' में युद्धकाण्ड साठ सन्धियों के विस्तार को भर कर फैला है । कृष्ण के बालचरित्र में भी युद्धवर्णन के कई अवसर स्वयम्भू को मिल जाते है।
६-१२ में मुष्टिक और चाणूर के साथ कृष्ण और बलभद्र के मल्लयुद्ध के वर्णन में मध्ययमकों के प्रयोग से चित्र में तादृशता सिद्ध हुई है। देखिए :- . दप्पुद्धर दुद्धर एत्तहे वि
उहिय मुठियचाणूर वे वि ण णिग्गय दिग्गय गिल्लगड __ण सासहु कसहु वाहुदड अप्फोडिउ सरहसु सावलेउ रणु मग्गिउ वग्गिउ ण मिउ खेउ असतण्हहो कण्हहो एकु मुक्कु उद्दामहो रामहो अवरु दुक्कु .. सुभयंकर-ढउकर-कत्तरीहिं
णीसरणेहिं करणेहिं भामरीहिं करछोहेहिं गाहेहिं पीडणेहिं अवरेहिं अणेयहिं कोडणेहि
इत्यादि । ''इतने में दर्शोबुर एवं दुघर चाणूर और मुष्टक दोनों उठ कर खड़े हुए । मदमत्त गजों की तरह सामने आ गए । मानों आशान्वित कंस के बाहुदण्ड । हर्ष और दर्प से आस्फोटन करते हुए उन्होने छलांग मार कर युद्ध की सत्वर मांग की। यश । तृष्णा वाले कृष्ण के प्रति एक को छोड़ा गया और उद्दाम बलराम के पास दूसरा पहुँच गया । भयंकर 'दौकर' 'कर्तरी' 'निःसरण' आदि दांवपेच के प्रयोग करते हुए, भंवरी घूमते हए, मुक्केबाजी, पकड़ना, पीसना आदि अनेक मल्लक्रीडा वे करते थे।
९-१४ में गणवृत्त पृथ्वी का विशिष्ट प्रयोग मिलता है । प्रत्येक पंक्ति आठ और नष अक्षरों के भागों में विभात की गई है और ये दो खण्ड यमक से बद्ध किए गए है। दोलय की रधि से परिणाम सुन्दर आया है। देखिए :
कयं णवर संजुय. सियसरासणीस जु सरप्पहरदारुण'
णवपवालकदारुण समुच्छलियलोहिय
सुरविलासिणोलोहिये पणच्च वयरुंडय
भमियभूरिभेरु'डयं इत्यादि। 'उमके पश्चात् युद्ध प्रवृत्त हुआ-जिसमें तीक्ष्ण धनुष्य प्रयुक्त होते थे, कठोर पहारों के कारण जो दारुण था, जिसमें अभिनव कोंपल जैना लाल लोह उछलता था, जो अप्सराभों को आकर्षित करता था, जिसमें कंबंध नाचते थे, और अनेक भेरुड पंछ' घूमते थे....'
ऐसे ही पृथ्वी छन्द का विशिष्ट प्रयोग ९-१८ में किया गया है। ___किसी एक निरूप्य विषय संबन्धित दीर्घ वर्णनखण्डो की रचना के अतिरिक्त स्वयम्भू की भोर एक विशेषता भी लक्ष्ययोग्य है। कडवकनिबद्ध भाव की पराका बहा पर
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