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________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य सूचित किया था, जैन पुराणकथाओं का स्वरूप पर्याप्त मात्रा में रूढिबद्ध एवं परंपरानिक्त था। दूसरी और अपभ्रंश कृतियों में भी विषय, वस्तु आदि में संस्कृत-प्राकृत की पूर्वप्रचलित रचनाओं का अनुसरण होता था। इसलिए यहां पर अपभ्रश कृष्णकान्य का विवरण एवं आलोचना प्रस्तुत करने के पहले जैन परम्परा को मान्य कृष्णकथा की एक सर्वसाधारण रूपरेखा प्रस्तुत करना आवश्यक होगा । इससे उत्तरवर्ती आलोचना आदि के लिए भावश्यक सन्दर्भ सुलभ हो पाएगा। नीचे दी गई रूपरेखा सन् ७८४ में दिगम्बराचार्य जिनसेनरचित संस्कृत ' हरिवंशपुराण' के मुख्यतः ३३, ३४, ३५, ३६, ४० और ४१ सर्गों पर आधारित है। श्वेताम्बरावार्य हेमचन्द्र के सन् १९६५ के करीब रचे हुए संस्कृत 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' के आठवें पर्व में भी सविस्तर कृष्णचरित है। जिनसेन के वृत्तांत से हेमचन्द्र का वृत्तांत कुछ भेद रखता है । कुछ महत्त्व की विभिन्नताएं पादटिप्पणियों में सूचित की गई है। (हरिवंशपुराण का संकेत 'हपु०' और 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' का संकेत 'त्रिच.' रखा है )कृष्णचरित अत्यन्त विस्तृत होने से यहां पर उसकी सर्वांगीण समालोचना करना सम्भव नहीं है । जैन कृष्णचरित के स्पष्ट रूप से दो भाग किए जा सकते हैं। कृष्ण और यादवों के द्वारावती. प्रवेश तक एक भाग और शेष चरित का दूसरा भाग । पूर्वभाग में कृष्ण जितने केन्द्रवर्ती है उतने उत्तरभाग में नहीं है। इसलिए निम्न रूपरेखा पूर्वकृष्णचरित तक सीमित की गई है। ... ३. जैन कृष्णकथा की रूपरेखा ..हरिवंश में जो कि हरिराजा से शुरू हुआ था, कालक्रम से मथुरा में यदु नामक राजा हुभा। उसके नाम से उसके वंशज यादव कहलाए । यदु का पुत्र नरपति हुभा और नरपति के पुत्र शूर और सुवीर । सुवीर को मथुरा का राज्य दे कर शूर ने कुशद्य देश में शौर्यपुर बसाया । शूर के अन्धावृष्णि आदि पुत्र हुए। और सुवीर के भोषक वृष्णि भादि । अन्धकवृष्णि के दश पुत्र हुए उनमें सबसे बड़ा समुद्रविजय और सबसे छोटा वसुदेव था। ये सब दशाई नाम से विख्यात हुए । कुन्ती और माद्री ये दो अन्धकवृष्णि की पुत्रियां थीं। भोजकवृष्णि के उग्रसेन आदि पुत्र थे। क्रम से शौर्यपुर के सिंहासन पर समुद्रविजय और मधुग के सिंहासन पर उग्रसेन आरूढ हुए । . अतिशय सौन्दर्य युक्त वसुदेव से मन्त्रमुग्ध होकर नगर की स्त्रियां अपने परवार की उपेक्षा करने लगी। नागरिकों की शिकायत से समुद्रविजय ने युक्तिपूर्वक बमदेव के घर से बाहर निकलने पर नियन्त्रण लगा दिया । वसुदेव को एक दिन अकस्मात इसका पता लग गया। उसने प्रच्छन्न रूप से नगर छोड़ दिया । जाते जाते उसने लोगों में ऐसी बात फैलाई कि वसुदेव ने तो अग्निप्रवेश कर के आत्महत्या कर ली। बाद में वह कई देशों में भ्रमण कर के और बहुत मानवकन्याएँ एवं विद्याधरकन्याएँ प्राप्त कर के एक सौ वर्ष के बाद भरिपुर की गजकुमारी रोहिणी के स्वाम्बर में आ पहुँचा । रोहिणी ने उसका वरण किया। वहां आए समुद्रविजय आदि वन्धुओं के साथ उसका पुनर्मिलन हुआ । वसुदेव को रोहिणी से . राम नामक पुत्र हुआ । कुछ समय के बाद वह शौर्यपुर में वापिस आ गया और वहीं धनुर्वेद का आचार्य बन कर रहा । मगधराज जरासंध ने घोषणा कर दी कि जो सिंहपुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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