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अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण-काव्य अनेकानेक कृष्णविषयक रचनाएँ हुई। 'हरिवंश', 'विष्णुपुराण', 'भागवतपुराण' आदि की कृष्णकथाओं में तत्कालीन साहित्य-रचनाओं के लिए एक अक्षय मूलस्रोत का काम किया है। विषय, शैली आदि की दृष्टि से अपभ्रश साहित्य पर संस्कृत-प्राकृत साहित्य का प्रभाव गहरा एवं लगातार रहता था । अतः अपभ्रंश साहित्य में भी कृष्णविषयक रचनाओं की दीर्घ और व्यापक परम्परा का स्थापित होना अत्यन्त सहज था। किन्तु उपरिवर्णित परिस्थिति के कारण हमें न तो प्राप्त है अपभ्रंश का एक भी शुद्ध कृष्णकान्य, न तो हमें प्राप्त है एक भी जेनेतर कृष्णकाव्य । और जैन परम्परा की जो रचनाएँ मिलती हैं वे भी बहुत कर के अन्य बृहत् पौराणिक रचनाओं के एकदेश के रूप में मिलती हैं। इतना ही नहीं उनमें से अधिकांश कृतियां अब तक अप्रकाशित हैं। इसका अर्थ यह नहीं होता कि अपभ्रंश का उक्त कृष्णसाहित्य काव्य-गुगों से वंचित है। फिर भी इतना तो अवश्य है कि कृष्णकथा जैन साहित्य के एक अंश के रूप में रहने से तजन्य मर्यादाओं से वह बाधित है।
२. कृष्णकथा का स्वरूप वैदिक परम्परा की तरह जैन परम्परा में भी कृष्णचरित्र पुराणकथाओं का ही एक अंश था। जैन कृष्णचरित्र वैदेक परम्परा के कृष्णचरित्र का ही सम्प्रदायानुकूल रूपान्तर था । यही परिस्थिति गमकथा आदि कई अन्य पुराणकथाओं के बारे में भी है। जैन परम्परा इतर परम्परा के मान्य कथास्वरूप में व्यावहारिक दृष्टि से एवं तर्कबुद्धि को दृष्टि से कुछ असंगतियां बताकर उसे मिथ्या कहती है और उससे भिन्न स्वरूप की कथा जिसे वह सही समझती है उसको प्रस्तुत करती है । तथापि जहाँ तक सभो मुख्य पात्रों का, मुख्य घटनाभों का और उनके क्रमादि का सम्बन्ध है वहां सर्वत्र जैन परम्परा ने हिन्दु परम्परा का ही अनुसरण किया है।
. .जैन कृष्णकथा में भी मुख्य प्रसंग, उनके क्रम, एवं पात्र के स्वरूप आदि दीर्घकालीन परम्परा से नियत थे। अत: जहाँ तक कथानक का सम्बन्ध है जैन कृष्णकथा पर आधारित विभिन्न कृतियों में परिवर्तनों के लिए स्वल्प अवकाश रहता था । फिर भी कुछ छोटीमोटी तफसीलों के विषय में, कार्यो के प्रवृत्ति-निमित्तों के विषय में एवं निरूपण की इयत्ता के विषय में एक कृति और दसरी कृति के बीच पर्याप्त मात्रा में अन्तर रहता था । दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के कृष्णचरित्रों की भी अपनी अपनो विशिष्टताएं हैं। और उनमें से कोई एक रूपान्तर के अनुपरणकर्ताओं में भी आपस आपस में कुछ भिन्नता देखो जाती है । मूल कथानक को कुछ विषयों में सम्प्रदायानुकूल करने के लिए कोई सर्वमान्य प्रणालिका के अभाव में जैन रचनाकारों ने अपने अपने मार्ग लिये हैं ।
- जैन कृष्णचरित्र के अनुसार कृष्ण न तो कोई दिव्य पुरुष थे, न तो ईश्वर के अवतार या 'मेगवान स्वयं' । वे मानव ही थे, हालांकि एक असामान्य शक्तिशाली वीर पुरुष एवं सम्राट
। जैन पुराणकथा के अनुसार प्रस्तुत कालखंड में तिरसठ महापुरुष या शलाका-पुरुष हो गए। चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव (या नारायण), नव बलदेव और नव प्रतिवासुदेव। वासुदेवों की समृद्धि, सामर्थ्य एवं पदवी चक्रवर्तियों से आधी होती थी । प्रत्येक
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