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अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण-काव्य
हरिवल्लभ भायाणी
- १. प्रास्ताविक अपभ्रंश साहित्य में कृष्णविषयक रचनाओं का स्वरूप, इयत्ता, प्रकार और महत्त्व कैसा था यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से सम्बन्धित कुछ सर्वसाधारण और प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा ।
समय की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य पांचवी-छठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक पनपा। और बाद में भी उसका प्रवाह क्षीण होता हुआ भी चार सौ पांच सौ वर्ष तक बहता रहा । इतने दीर्घ समयपट पर फैले हुए साहित्य की हमारी जानकारी कई कारणों से अत्यन्त त्रुटित है।
पहली बात तो यह कि नवीं शताब्दी के पूर्व को एक भी अपभ्रश कृति अब तक हमें हस्तगत नहीं हुई है। प्रायः तीन सौ साल का प्रारम्भिक कालखण्ड साग का सारा अन्धकार से आवृत सा है । और बाद के समय में भी दसवीं शताब्दी तक की कृतियों में से बहुत स्वल्प उपलब्ध हैं ।
दूसरा यह कि अपभ्रंश की कई एक लाक्षणिक साहित्यिक विधाओं की एकाध ही कृति बची है और वह भी ठोक उत्तरकालीन है । ऐसी पूर्वकालीन कृतियों के नाम मात्र से भी हम वंचित हैं। इससे अपभ्रंश के प्राचीन साहित्य का चित्र अच्छी तरह धुंधला और कई स्थलों पर तो बिलकुल कोरा है ।
तीसरा यह कि अपभ्रंश का बचा हुआ साहित्य बहुत कर के धार्मिक साहित्य है और वह भी स्वल्प अपवादों के सिवा केवल जैन साहित्य है । जैनेतर-हिन्दू एवं बौद्ध साहित्य की और शुद्ध साहित्य की केवल दो-तीन रचनाएं मिली है। इस तरह प्राप्त अपभ्रंश साहित्य जैन-प्राय है और इस बातका श्रेय जैनियों की ग्रन्थं सुरक्षा की व्यवस्थित पद्धति को देना चाहिए । मगर ऐसी परिस्थिति के फलस्वरूप अपभ्रंश साहित्य का चित्र और भी खण्डित एवं एकाजी बनता है।
इस सिलसिले में एक और अधिक बात का भी निर्देश करना होगा। जो कुछ अपभ्रंश साहित्य बच गया है उसमें से भी बहुत छोटा अंश अब तक प्रकाशित हो सका है । बहुत सी कृतियाँ भाण्डारों में हस्तप्रतियों के ही रूप में होने से असुलभ हैं।
इन सब के कारण अपभ्रंश साहित्य के कोई एकाध अंग या पहलू का भी वृत्तान्त तैयार करने में अनेक कठिनाइयाँ सामने आती हैं और फलस्वरूप वह वृत्तान्त अपूर्ण एवं अटक रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है । ____ यह तो हुई सर्वसाधारण अपभ्रंश साहित्य की बात । फिर यहाँ पर हमारा सीधा नाता कृष्णकाव्य के साथ है । अतः हम उसकी बात लेकर चले । ___ भारतीय साहित्य के इतिहास की दृष्टि से जो अपभ्रंश का उत्कर्षकाल है वही कृष्णकाम्य का मध्याह्नकाल । संस्कृत एवं प्राकृत में इसी कालखण्ड में पौराणिक और काव्यसाहित्य की
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