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________________ सत्यव्रत अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये किया है अथवा यह माघ का ही पाठान्तर है, इसका निश्चय माघ के विशेषज्ञ हो कर सकते हैं। यदि यह परिवर्तन स्वयं समस्याकार द्वारा भी किया गया हो, तो भी समस्यापूर्ति में बाधक नहीं है। समस्यापूर्ति की सार्थकता इस बात में है कि समस्यारूप में गृहीत चरण का प्रसंग में अभीष्ट भिन्न अर्थ किया जाए । मेघविजय इस कला के पारंगत आचार्य है। समस्यापूर्ति में उनकी सिद्धहस्तता का अनुमान इसी से किया . बा सकता है कि उन्होंने माघ के अतिरिक्त मेघदूत, नैषध तथा किरातार्जुनीय को समस्यापूर्ति के रूप में स्वतन्त्र काव्यों की रचना की थी। भाषा का चतुर शिल्पी होने के कारण मेघविजय ने महाकाव्य से गृहीत समस्याओं का बहुधा भज्ञात तथा चमत्कारबनक अर्थ किया है। वांछित नवीन अर्थ निकालने के लिये कवि को भाषा के साथ मनमाना खिलवाड़ करना पड़ा है। कहीं उसने मूल पाठ के विसर्ग तथा अनुस्वार का लोप किया है, कहीं विभक्ति-विर्यय, वचनभेद तथा क्रियाभेद किया है। सन्धिमेद तथा शब्दस्थानभेद का भी उसने खुलकर आश्रय लिया है । किन्तु कवि ने अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति अधिकतर नवीन पदच्छेद के द्वारा की है । अभिनव पदच्छेद के द्वारा वह ऐसे अर्थ निकालने में सफल हुआ है, जिनकी कल्पना माघ ने भी नहीं की होगी। इसमें उसे पूर्व चरण की पदावली से बहुत सहायता मिली है। मेघविजय ने अपने उद्देश्य की . पूर्ति के लिये माघ की भाषा को किस निर्ममता से तोड़ा-मरोड़ा है तथा उससे किस-किस . अर्थ का सवन किया है, उसका कुछ आभास निम्नोक्त तालिका से मिल सकता है । माघ मेघविजय १. क्रमादमुनारद इत्यबोधि सः (१.३) क्रमाद् अमुन्नारद इत्यबोधिसः । १.३-४ [ अमुद् अहर्षः तस्य नारः विक्षेपः ध्वंसः हर्षः तं दत्ते इति । इत्यबोधिसः इत्या प्राप्तव्या बोधिसा ज्ञानलक्ष्मीर्यस्य सः] २. धराधरेन्द्र ब्रततीततोरिव (१.५) विभ्रतं धरा धरेन्द्र व्रततीततीरिव । १.६ (यथा व्रततीततीः बिभ्रतं घरेन्द्र प्राप्य गुणाधि कापि धरा अतिदुर्गमा रसरहिता भवति ] ३. पुरातनं त्वां पुरुषं पुराविदः (१.३३) पुरांतनं त्वां पुरुषं पुराविदः १.३४ यत्र अमन्तमुज्जगुः' यत्र पुराणपुरुषं कृष्णम् श्री लक्ष्मी भवन्तं-बभन्तं-पुराविदः उज्जगुः] ४. विलंध्य लंकां निकषा हनिष्यति (१.६८) तमोऽवधेर्विल ध्यलंकां निकषा हमिष्यति । १.७१ [वासुदेवः चिच्छक्तिं विधृत्य अवधेविलंघि निस्सीम तमः पापं राहु वा हनिष्यति । किंभूतां चिनाक्तिम् ? अरंकाम् उग्रां दीप्तां निकषा पावें बालत्वेऽपि अस्मिन् भवे। यद्वा अलम् अत्यर्थम्, कांचिद् अनिर्वचनीयाम् !] . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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