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________________ मेघविजय को प्राप्त माघ का दाय योग के द्वारा अपने छन्दःशास्त्रीय पाण्डित्य का परिचय दिया है। माषकाव्य तथा देवानन्द होगों के छठे सर्ग में षड्-ऋतु वर्णन की रूढि का पालन किया गया है, जो यमक से आच्छाक्ति है। - देवानन्द की रचना माषकाव्य की समस्यापूर्ति के रूप में हुई है। इसमें माघ प्राम सात. सर्गो को हो समस्यापूर्ति का आधार बनाया गया है । अधिकतर शिशुपालवधा के पद्यों के चतुर्थ पाद को समस्या के रूप में ग्रहण करके अन्य तीन-चरणों की रचना क्रवि ने स्वयं की है, किन्तु कहीं-कहीं दो अथवा तीन चरणों को लेकर भी समस्यापूर्ति की गयी है। कुछ पद्यों के विभिन्न चरणों को लेकर अलग-अलग लोक रचे गये है। माष के ३.४८ बासें पादों के आधार पर मेघविजय ने चार स्वतन्त्र पद्यों का निर्माण किया है (३:५१-५४) यामी-कभी एक समस्या-पाद की पूर्ति चार पद्यों में की गयी है । माघ के ३.६९ • बरण प्रायेण निष्कामति चक्रपाणी' का कवि ने चार पद्यों में प्रयोग किया है (३. ११३-१२०) । कहीं-कहीं एक समस्या दो अथवा तीन पद्यों का विषय बनी है। 'नेष्टं पुरो द्वारवतीअस्वमाबीत (माघ, ३१६९, चतुर्थ पाद), 'पारेजलं नीरनिधेरपरयन् (माघ, ७०, प्रथम), मिसाइवेन्दोः स रुच.ऽधिनीरं विलं]' (माघ, ३१५३, तृतीय), 'उदम्वतः स्वेदलवान् ममार्ज' मात्र, ३७९, द्वितीय), - 'तस्यानुवेलं मतोऽतिव)वेलं (वही, तृतीय), विचित् कविनयम्ति चामीकराः' (माघ, ४॥२४, बतुर्थ) के आभर पर मेषविजय ने क्रपथः ३।१२१-१९२, ३११२३-१:२४,३।१३८-१३९,३।१६५-१६६, ३९६७-१६८ तथा ४।३२-३३ की रचना की है। 'उत्संगशय्याशयमम्बुराशिः' (माघ, ३१७८, द्वितीय) मेघविजय के तीन पद्यों (३।१५९-१६१) का आधार बना है। देवानन्द के कर्ता ने दो समस्यापादों को एक ही पद्य में पादयमक के रूप में प्रयुक्त करके भी अपने रचना-कौशल का चमत्कार दिखाया है। . 'अक्षमिष्ट मधुवासरसारम्', 'प्रभावो केतनवैजयन्तो', 'परितस्तार रवेरसत्यव..श्यम्', 'रुचिरं कमनीयत रोगमिता' को क्रमश ६१७९,८०,८१,८२ के पूर्वार्ध तथा अपराध में प्रयुक्त किया गया है, यद्यपे आधारभूत समस्यापादों की भाँति दोनों भागो में, इनके अर्थ जमें, भाकाश-पातालका अन्तर है। समस्यापूर्ति में पूरणीय चरण के शब्दों को न बदल कर अर्थ की पूर्ति करनी होती है । माष तथा मेघविजय में कहीं-कहीं पाठभेद' मी मिलता है । यह परिवर्तन समस्याकार ने int. साहरणार्थ- देवानन्द, २.२.३, तृ. च, २.८३, द्वि. तृ., २.११२, प्र. द्वि, ४.४५, .वि.च, ६.७२, द्वि. च. ११. उदाहरणार्थ-देशनन्द, २.१२, प्र. द्वि. च, ४.४४, प्र. द्वि. च.. . दाहरणार्थ- माघ । मेघविजय संडिसा गणेरिव (१.८) तडितां गुणरिव (१.८) उदप्रदशनांशुभिः (२.२१) उदंशुदशनांशुभिः (२.२१) सतश्रवसः सुतः (२.४१) स सुतश्रवसः सुतः (२.४२) सर्वः स्वार्थ समीहते (२.६५) सर्वस्वार्थ समीहते (२.६८) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520760
Book TitleSambodhi 1981 Vol 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages340
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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