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मेघविजय को प्राप्त माथ का दाय
सत्यव्रत
सतरहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध पण्डित - कवि मेज़िय चित्रकाव्य के ब्रिग्रहस्त शिल्पी है । उन्हें ख्याति तो सर्व प्रथम मेघदूतसमस्यालेख से प्राप्त हुई कि वैभव सप्तसन्धान में दिखाई देता है, जिसमें पांच तीर्थकरों तथा राम ओराकृष्णकार व्वरित श्लेषविधि से गुम्फित ३' । मेघविजय का देवानन्दमा का उनके चित्रकाव्यको का एक अन्य ध्रुव उपस्थित करता है । इसमें जैन धर्म के प्रसिद्ध प्रभावक, तापीय आचार्य विजयदेवसूरि तथा उनके पट्टधर विजयप्रभसूरि के साधु भोषन के कतिपय संनद्ध करने का उपक्रम किया गया हैं । कवि का वास्तविक उद्देश्य चित्रकाव्य : ( समस्या पूर्ति) के द्वारा अपने पाण्डित्य तथा प्रौढ़ कवित्व की प्रतिष्ठा करना है । इसीलिये देवानन्द में स्वरितात्मकता का कंकाल चित्रकाव्य की बाढ़ में डूब गया है और यह मुख्यतः एक कुनिप्रधान चमत्कार - जनक काव्य बन गया है ।
मेघदूत समस्यालेख तथा शान्तिनाथचरित जैसे क्रमशः कालिदास के मेघदूत और श्रीहर्ष के नैषधचरित की समस्यापूर्ति के रूप में रचित है, उसी प्रकार मेघविजय के 'देवानन्द महाकाव्य में माघकाव्य की समस्यापूर्ति करने का घनघोर उद्योग किया गया है। शिशुपालबघ पर आधारित होने के कारण देवाचन्द में मेघविजय की शैली का माघ से प्रभावित होना स्वाभाविक था, किन्तु कथावस्तु की : योजना में भी वे माघ के ऋणी हैं माषकान्य के नायक कृष्ण वासुदेव हैं । देवानन्द का नायक में संयोगवश श्रेष्ठिपुत्र वासुदेव हैं । कृष्ण परम पुरुष हैं, वासुदेव आध्यात्मिक साधना ले बहुपूज्य पद प्राप्त करते है । शिशु के प्रथम सर्ग में देवर्षि नारद के आगमन तथा आतिथ्य का वर्णन है । देवान्द्रे किसी सर्ग में गुजरात, ईंडर तथा उसके शासक का वर्णन किया गया है । माघकाव्य के मद्वितीय वर्ग में कृष्ण, उद्धव तथा बलराम राजनैतिक मन्त्रणा करते हैं । देवासन्द के द्वितीय सर्ग में कुमार की माता तथा पितृव्य उसे वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने के लिये विचार-विमर्श करते हैं । वह उनकी युक्तियों का उसी प्रकार प्रतिवाद करता है जैसे कृष्ण बलराम के तर्कों का ि ष्ठिर के निमन्त्रण पर श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये इन्द्रप्रस्थ) (दिल्ली) जाते हैं । वासुदेव भी उपयुक्त गुरु की खोज में अहमदाबाद और सूस्पिद मास करने के पश्चात्, जहाँगीर के अनुरोध पर दिल्ली जाते हैं । शिशुपाक्ष के तृतीय सर्ग में श्रीकृष्ण सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान करते हैं । देवानन्द के तृतीय सर्ग में जयदेव के प्रवेशोत्सव के समय ईडरराज कल्याममल्ल की सेना की गजघटा तथा अश्वाराम का वर्णन है । दोनों के चतुर्थ सर्ग में रैवतक का वर्णन है किन्तु माने जहाँ मस)वर्णन पर लगा दिया है वहाँ मेघविजय आठ-दस पद्यों में ही रेवतक का वर्णन कर के ने
मेघविजय ने इस सर्ग में
कथ्य की ओर बढ़ गये हैं। माघ की भांति १. सप्तसन्धान के विस्तृत विवेचन के लिये 'अगरचन्द नाहटा अभिन्दन ग्रन्थ ' भाग २ (पृ. २९७ - ३०७) में प्रकाशित मेरा निबन्ध 'चित्रकाव्य का उत्कर्ष - सप्तसन्धान' द्रष्टव्य है । २. सम्पादकः बेचरदास जोवराज दोशी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक ७, सन् १९३७ ।
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नाना ( तेईस ) छन्दों के
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