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________________ कविवर नयसुन्दर की एक अज्ञात रचना-नेमिनाथ वसंत विलास अगरचंद नाहटा १७ वीं शताब्दी के गुजराती जैन कवियों में कविवर नयसुन्दर का उल्लेखनीय स्थान हैं। वे तपगच्छ की वृद्ध पोषालिक शाखा-बड तपगच्छ की परम्परा के भानुमेरु गणि के शिष्य थे । संस्कृत और गुजराती भाषा के वे उल्लेखनीय विद्वान थे । इसकी सुप्रसिद्ध 'सारस्वत व्याकरण' की 'रूपरत्नमाला' नामक टीका की २ प्रतिषाँ हमारे श्री अभय जैन ग्रन्थालय में है जिनमें से आख्यातप्रक्रिया की टीका संवत् १६७५ के माघ सुदी १३ को रची गई है, और कृदंतप्रक्रण की टीका संवत् १६७६ में रची गई । इसको ऐतिहासिक प्रशस्ति ४० श्लोको में रची गई है । तत्कालीन लिखित ये सुन्दर प्रतियाँ हमारे अभय जैन ग्रन्थालय की प्रति नं०४५८५-८६ में विद्यमान हैं । इस महत्त्वपूर्ण टीका की प्रतियाँ बहुत ही कम पाई बाती हैं । स्वर्गीय एच० डी० वेलणकर ने शताधिक जैन ज्ञान भण्डारों की सूचीयों का अवलोकन करके 'जिनरत्नकोष' नामक जो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ तैयार किया उसके पृ० ४३४ में नयसुन्दर की रूपमाला की केवल एक प्रति का उल्लेख हुआ है जो अहमदाबाद के डेहला उपासरे में प्राप्त है । उन्होंने इसका रचनाकाल अपने ग्रन्थ में नहीं दिया है। पर हमारे संग्रह की प्रतियों की प्रशस्ति को देखकर मैंने उपरोक्त संवत् दिये हैं । नयसुन्दर की यह प्रौढ रचना है । गुजराती कवि के रूप में तो वे बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। जैन गुर्जर कवियों के प्रथम भाग में उनके रचित रूपचंदकुवर रास, शत्रुजय उद्धार रास, प्रभावती रास, सुरसुन्दरी रास, और नलदमयंतीरास, तथा शीलशिक्षागस का विवरण छपा था । इन में से रूपचन्द रास, शत्रुजय उद्धार रास सुरसुन्दरी रास, ये तीन रास आनन्द काव्य महोदधि मौक्तिक तीन में प्रकाशित हो चुके हैं । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में स्वर्गीय मोहनलाल दलीचंद देशाई ने कवि के सम्बन्ध में विस्तृत निबन्ध दिया है । इसके बाद जैन साहित्य महारथी स्वर्गीय देशाई ने इस कवि की जो अन्य रचनायें प्राप्त हुई, उसका विवरण जैन गुर्जर कवियों भाग ३ पृ. ७४८ से ७५५ में प्रकाशित किया है । उसमें कवि की सबसे पहली रचना के रूप में 'यशोघर इस चौपाई' का रचना काल सं० १६१८ पौष सुदी १ गुरुवार बतलाया है पर वह ठीक नहीं है। वास्तव में कवि का यह काव्य पहली रचना नहीं अन्तिम रचना है,और इसका रचना काल संवत १६१८ नहीं १६७८ है। इस चौपाई की प्रशस्ति में इसको रचना विजयसुन्दर सूरि के समय में हुई जो देवसुन्दरसूरि के पटघर थे । इस ओर माननीय देशाई का ध्यान नहीं गया और रचना काल सूचक निम्नोक्त पंक्ति के पाठ का रहस्य ठीक से समझ नहीं पाये । यह पंक्ति इस प्रकार है। वसुधा वसु मुनि रस एक, संवत्सर सुविवेक । प्रतिपद पोषनो असिता, कथा संपूरण विहिता । वास्तव में वसुधा शब्द ने गड़बड़ी उपस्थित कर दी है। इसके आगे जा 'वसु-मुनि रस एक' शब्द हैं उनसे रचना काल १६७८ सिद्ध होता है । नयसुन्दर कवि के अन्द काव्यों की प्रशस्तियां आदि से यह स्पष्ट है कि सं०१६१८में देवसुन्दर सूरि व विजयसुन्दर सूरि विद्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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