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________________ अगरचंद नाहटा अर्णभद्र दोनों को एक मान लिया है। अभी अभी पं. कैलाशचन्द जी शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ' के पृष्ठ २०२ में उनका एक लेख 'स्वेत भिक्षु' के नाम से प्रकाशित हुआ है। उसमें भी इसी मान्यता को उन्होंने दोहराया है। उन्होंने लिखा है कि 'यह पूर्णभद्र खरतरगच्छीय जैन साधु बिनपतिसूरि के शिष्य थे, उन्होंने पन्चतन्त्र का सन् १९९९ में पंचाख्यान के रूप में रूपान्तर किया था । वास्तव में ये दोनों ग्रंथकार भिन्न भिन्न थे । नामसाम्य के कारण दोनों को एक मानने की भूल हो गई है । क्योंकि जिनपतिसूरि के शिष्य पूर्णभद्र की दीक्षा ही 'खरतरगच्छ बृहद गुर्वावलि' नामक प्रामाणिक ग्रन्थ के अनुसार सं० १२६० में हुई थीं। सिंघी जैन ग्रन्थ माला से प्रकाशित उक्त गुर्वावली को एक मात्र प्रति मैंने ही बीकानेर के उपाध्याय क्षमाकल्याणजी के भंडार में सर्व प्रथम खोजी थीं और मुनि जिनविजयजी के द्वारा प्रकाशित करवाई थीं । उक्त संस्करण के पृष्ठ ४४ में स्पष्ट लिखा है कि "सन् १२६० आसाइक्दी ६ वीरप्रभगणि देवकोर्ति गण्योरूपस्थापनाकृता । सुमटिगणि, पूर्णभद्र गण्यो व्रतम् स्चम ।' पंचाख्यान की रचना सं० १२५५ में होने का उल्लेख उपरोक्त प्रशस्ति में स्पष्ट है चनकि खरतरगच्छोय जिनपतिसूरि के शिष्य पूर्णभद्र की दीक्षा पंचाख्यान की रचना के ५ वर्ष बाद की है। अतः उनके द्वारा पंचाख्यान के रचे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। ये पूर्णभद्र उनसे पहले अन्य किसी गच्छ के आचार्य हुए हैं, खरतरगच्छीय पूर्णभद्र तो सूरिआचार्य भी नहीं थे। पंचाख्यान की रचना जिन सोममन्त्री के कहने से की गई है वह कहाँ का था, कौन था, इसकी जानकारी डा. सांडेसराजी को नहीं मिल सकी। पर खरतरगच्छ गुर्वावली के 8. में बालोर के सोममन्त्री का उल्लेख है । यद्यपि है वह काफी पीछे का । अर्थात स. १३१६ का है। संभव है उस समय वह काफे वृद्ध हो, और पांचख्यान के समय मुंवा हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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