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पंचाख्यान के संशोधक पूर्णभद्रसूरि खरतर पूर्णभद्र नहीं थे
अगरचंद नाहटा नाम साम्य के कारण बहुत बार भ्रम और गल्तियाँ हो जाया करती है जिनका संशोधन बहुत ही आवश्यक है, अन्यथा वह भ्रामक परम्परा लम्बे समय तक चलती रहती है। इसलिये मैंने अपने कई लेखों में नाम साम्य के कारण जो महत्वपूर्ण भ्रम व गल्ती हो जाती है उनका संशोधन करने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत लेख में ऐसा ही एक प्रयास किया जा रहा है।
पंचतन्त्र या पंचाख्यान नामक ग्रन्थ बहुत ही प्रसिद्ध है । इसकी कथायें बहुत सरल और उपयोगी होने से इसका प्रचार भारत में ही नहीं विदेशों में भी बहुत अधिक हुआ है । भारत में कई पाठ्यक्रमों में संस्कृत की सरलता से शिक्षा देने के लिए इस ग्रन्थ को रखा हआ है। विदेशी विद्वानों ने पंचतन्त्र के विविध संस्करणों की गहरी छानवीन करके शोधपूर्ण प्रकाश डाला है। मेरे विद्वान मित्र डा. भोगीलाल सांडेसरा को भी जब पंचतंत्र का गुजराती अनुवाद का कार्य सौंपा गया तो उन्होंने अनुवाद के साथ साथ पंचतन्त्र के संस्करणों और कथाओं पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला । गुजरातो साहित्य परिषद की ओर से भारतीय विद्या भवन, बम्बई ने उनका वह ग्रन्थ पंचतन्त्र के नाम से सन् १९३९ में प्रकाशित किया है। जिसका उपोद्घात १२४ पृष्ठों का है। इसीसे उन्होंने कितना परिश्रम किया है इसका अनुमान पाठक लगा सकते हैं । इस उपोद्घात के पृष्ठ ३२ में पूर्णभद्र के पंचाख्यान के सम्बन्ध में लिखा है कि पंचतन्त्र की समस्त प्राचीन पाठ परम्पराओं में एक मात्र पूर्णभद्र का पंचाख्यान ऐसा है जिसके रचयिता व रचनाकाल की निश्चित जानकारी मिलती है। प्रशस्ति के अनुसार पंचतत्र का यह ग्रंथ सोम मन्त्री के वचन से संशोधित किया । अन्त की पंक्ति में 'श्रीपूर्णभद्रसूरिविंशोधयामास. शास्त्रमिदम्' लिखा है। प्रशस्ति इस प्रकार है
शरवाणतरणिवर्षे रविकरवदि फाल्गुने तृतीयायाम् । बीर्णोद्धार इवासौ प्रतिष्ठितोऽधिष्ठितो बुधैः ॥२॥ श्रीसोममंत्रिवचनेन विशीर्णवर्णमालोक्य शास्त्रमखिलं खलु पंचतंत्रम् । . . श्रीपूर्णभद्रगुरुणा गुरुणादरेण संशोधितं नृपतिनीतिविवेचनाय ॥ प्रत्यक्षरं प्रतिपदं प्रतिवाक्यं प्रतिकथं प्रतिश्लोकम् । श्रीपूर्णभद्रसूरिविंशोधयामास शास्त्रमिदम् ।
इस प्रशस्ति में पूर्णभद्रसूरि ने अपने गच्छ व गुरु का नाम नहीं दिया है और उसी समय के आसपास खरतरगच्छ में एक पूर्णभद्र नामक विद्वान हुए हैं जो जिनपतिसूरि के शिष्य थे और उनकी धनशालीभद्र चरित्र, कृतपुण्यचरित्र, अतिमुक्तचरित्र, आदि रचनायें प्राप्त होती है । इसलिए डा० सांडेसरा ने पंचाख्यान के संशोधक पूर्णभद्र और खरतरगच्छ के
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