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सागरमल जैन
सकता, जिन्हें हम जैन विचारणा में निकाचित कर्म करते हैं जिनका बन्ध जिस विपाक को लेकर होता है उसी विपाक के द्वारा वे समाप्त होते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं अर्थात् उनके विपाक का उसी रूप में भोग अनिवार्य होता है । इसे ही हम कर्मविपाक की नियतता कहते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जिनका विपाक उसी रूप में अनिवार्य नहीं होता है । उनके विपाक के स्वरूप, मात्रा, समयावधि एवं तीव्रता आदि में परिवर्तन किया जा सकता है, जिन्हें हम अनिकाचित कर्म के रूप में जानते हैं।
जैन विचारणा कर्मविपाक की नियतता और अनियतता दोनों को ही स्वीकार करती है और यह बताती है कि कर्मों के पीछे रही हुई कषायों की तीव्रता एवं अल्पता के आधार पर ही क्रमशः नियत विपाकी एवं अनियत विपाको कर्मों का बन्ध होता है । जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे तीव्र कषाय (वासनाएं) होती हैं उनका बन्ध भी अति स्निग्ध होता है और उसका विपाक भी नियत होता है इसके विपरीत जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे कषाय अल्प होतो है उनका बन्ध रूक्ष होता है और इसीलिए उनका विपाक भी अनियत होता है । जैन कर्म सिद्धान्त में संक्रमण, उत्कर्षण, अपवर्तन, उदीरणा एवं उपशमन की धारणायें कर्मो के अनियत विपाक की और संकेत करती है लेकिन जैन विचारणा सभी कर्मों को अनियत विपाकी नहीं मानती है, जिन कर्मों का बन्ध तीव्र कषायिक भावों के फल स्वरूप होता है उन्हें वह नियत विपाकी कर्म मानती है। वैयक्तिक दृष्टि से सभी आत्माओं में कर्म विपाक में परिवर्तन करने की क्षमता नहीं होती हैं जब व्यक्ति एक आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंच जाता है तभी उसमें कर्म विपाक को अनियत बनाने की शक्ति उत्पन्न होतो है फिर भी स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्ति जब कितनी ही आध्यात्मिक ऊंचाई पर स्थित हो वह मात्र उन्हीं कर्मों का विपाक अनियत बना सकता है जिनका बन्ध अनियत विपाकी कर्म के रूप में हुआ है। जिन कर्मो का बन्ध नियत विपाकी कर्मो के रूप में हुआ है उनका भोग तो अनिवार्य है । इस प्रकार जैन विचारणा कमों की नियतता और अनियतता दोनों को ही स्वीकार करती है और इस आधार पर वह अपने कर्म सिद्धान्त को नियतिवाद और यहच्छावाद के दोषों से बचा लेती है । बन्धन के कारण :
जैन दृष्टिकोण के अनुसार बन्धन का कारण आस्रव माना गया है । आस्रव शब्द क्लेश या मल का बोधक है । आत्मा के क्लेश या मल ही कर्म वर्गणा के पुद्गलों को आत्मा के सम्पर्क में आने का कारण बनते है । अतः जैन तत्त्वज्ञान में आस्रव का रूढ अर्थ यह भी है कि कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना आस्रव है । अपने मूल अर्थ में आस्रव उन कारकों की व्याख्याता है, जो कर्मवर्गणाओं को आत्मा की ओर लाते हैं और इस प्रकार आत्मा के बन्धन के कारण होते हैं । आस्रव के दो भेद हैं-१-भावास्रव और २द्रव्यास्रव । आत्मा की विकारी मनोदशा भावास्रव है जबकि कर्म परमाणुओं का आगमनं द्रव्यास्रव है । इस प्रकार भावास्रव कारण है और द्रव्यास्रव कार्य या प्रक्रिया है । द्रव्यासव का कारण भावास्रव है, लेकिन यह भावात्मक परिवर्तन भी अकारण नहीं हैं। वरन् पूर्व बद्ध कर्म के कारण होता है । इस प्रकार पूर्व बन्धन के कारण भावास्रव और भावास्रव के कारण द्रव्यास्रव और द्रव्यास्रव से कर्म का बन्धन होता है ।
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