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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया . वैसे सामान्य रूप में मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियां ही आस्रव है।"ये । प्रवृत्तियां या क्रियाएँ दो प्रकार की होती है-शुभ प्रवृत्तियां पुण्य कर्म का आस्रव है और अशुभ प्रवृत्तियां पाप कर्म का आस्रव है।" यहाँ उन सभी मानसिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का, जो आस्रव कही जाती है, विवेचन सम्भव नहीं है । जैनागमो में इनका वर्गीकरण अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से किया गया है। यहां हम तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर केवल एक वर्गीकरण प्रस्तुत कर देना ही पर्याप्त समझते हैं । __तत्त्वार्थसूत्र में आस्रव दो प्रकार का माना गया है-१-ईयाँपथिक और २- साम्परायिक" । जैन दर्शन गीता के समान यह स्वीकार करता है कि जब तक जीवन है, तब तक शरीर को निष्क्रिय नहीं रखा जा सकता है । मानसिक वृत्ति के साथ ही साथ सहज शारीरिक एवं वाचिक क्रियाएँ भी चलती रहती हैं और क्रिया के फलस्वरूप कर्मास्रव भी होता रहता है । लेकिन जो व्यक्ति कलुषित मानसिक वृत्तियों (कषायों) के ऊपर उठ जाता है, उसकी और सामान्य व्यक्तियों की क्रियाओं के द्वारा होने वाले आस्रव में अन्तर तो अवश्य ही मानना होगा । कषाय वृत्ति (दूषित मनोवृत्ति) से ऊपर उठे व्यक्ति को क्रियाओं के द्वारा जो आस्रव होता है उसे जैन परिभाषा में ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं । जिस प्रकार चलते हुए रास्ते को धूल का सूखा कण पहले क्षण में सूखे वस्त्र पर लगता है लेकिन गति । के साथ ही दूसरे क्षण में विलग हो जाता है, उसी प्रकार कषाय वृत्ति से रहित क्रियाओं से पहले क्षण में आस्रव एवं बन्ध होता है और दूसरे क्षण में वह निर्जरित हो जाता है। ऐसी क्रिया आत्मा में कोई विभाव उत्पन्न नहीं करती है । जबकि जो क्रियाएँ कषाय सहित होती हैं उससे साम्परायिक आस्रव होता है । साम्परायिक आस्रव होता है । साम्परायिक आश्रव आत्मा के स्वभाव का आवरण कर उसमें विभाव को उत्पन्न करता है। तत्त्वार्थसूत्र में सांपरायिक आस्रव का आधार निम्न ३ प्रकार की क्रियाएं मानी गई है१-५ हिसा, असत्य भाषण, चोरी, मैथुन, संग्रह (परिग्रह) (पाँच अवत) २०-६-९ क्रोध, मान, माया, लोभ (चार कषाय) १०-१४ पाँचो इन्द्रयों के विषयों का सेवन १५-३८ चौबीस साम्परायिक क्रियाएँ । वैसे तो आस्रव का मूलकारण योग (क्रिया) है लेकिन यह समग्र क्रिया व्यापार भी स्वतः प्रसुत नही है उसके भी प्रेरक सूत्र हैं, जिन्हें आस्रवद्वार या बन्ध हेतु कहा गया है। समवायांग, ऋषिभाषित एवं तत्वार्थसूत्र में इनकी संख्या ५ मानी गई है । १- मिथ्यात्व, २- अविरति, ३- प्रमाद, ४- कषाय और ५- योग (क्रिया)" । समयसार मैं इसमें से का उल्लेख मिलता है, वहां पर प्रमाद का उल्लेख नहीं है। उपरोक्त पाँच प्रमख आस्रव द्वार या बन्धहेतुओं को पुनः अनेक भेद प्रभेदों में वर्गीकृत किया गया है. यहाँ हम उनके सम्बन्ध में विस्तृत विचारणा नहीं करते हुए केवल नाम निर्देश कर देते पाँच आस्रव द्वार या बन्धुहेतुओं के अवान्तर भेद निम्नानुसार हैं (क) मिथ्यात्व-मिथ्यात्व अयथार्थ दृष्टिकोण हैं, जो पाँच प्रकार की होती है- १. एकांत, २. विपरीत, ३. विनय, ४. (रूढिवादिता) संशय, और ५. अज्ञान । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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