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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया (५) सत्ता- कर्मो का बन्ध हो जाने के पश्चात् उनका विपाक भविष्य में किसी समय होता है। प्रत्येक कर्म अपने सत्ता काल के समाप्त होने पर ही फल (विपाक) दे पाता है। जितने समय तक काल मर्यादा परिपक्व न होने के कारण कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध बना रहता है वह अवस्था सत्ता कही जाती है ।। (६) उदय- जब कर्म अपना फल (विपाक) देना प्रारम्भ कर देते हैं, वह अवस्था उदय कही जाती है । लेकिन जैन विचारणा यह भी मानती है कि सभी कर्म अपना फल प्रदान तो करते हैं लेकिन कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जो फल देते हुए भी भोक्ता को फल की अनुभूति नहीं कराते है और निर्जरित हो जाते हैं । जैन विचारणा में फल देना और फल की अनुभूति होना यह अलग तथ्य माने गये हैं । जो कर्म बिना फल की अनुभूति कराये निर्जरित हो जाता है उसका उदय प्रदेशोदय कहा जाता है जैसे आपरेशन में अचेतन अवस्था में शल्य क्रिया की वेदना की अनुभूति नहीं होती है । कषाय के अभाव में इर्यापथिक क्रिया के कारण जो बन्ध होता है उसका भी मात्र प्रदेशोदय होता है । जो कर्म ' परमाणु अपनी फलानुभूति करवा कर आत्मा से निर्जरित होते हैं उनका उदयं विपाकोदय कहलाता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि विपाकोदय की अवस्था में प्रदेशोदय तो होता . ही है, लेकिन प्रदेशोदय की अवस्था में विपाकोदय हो ही यह अनिवार्य नहीं है। (७) उदीरणा- जिस प्रकार समय के पूर्व कृत्रिम रूप से फल को पकाया जा सकता है उसी प्रकार नियत काल के पूर्व ही प्रयास पूर्वक उदय में लाकर कर्मों के फलों को भोग लेना उदीरणा कहा जाता है। इसमें साधारण नियम यह है कि जिस कर्म प्रकृति का उदय या भोग चल रहा हो उसकी सजातीय कर्म प्रकृति की उदीरणा सम्भव है । (८) उपशमन- कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना या उन्हें किसी काल विशेष के लिए फल देने में अक्षम बना देना उपशमन कहा जाता है । उपशमन में कर्म की ढकी हुई अग्नि के समान बना दिया जाता है । जिस प्रकार राख से दबी हुई अग्नि उस आवरण के दूर होते ही पुनः प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार उपशमन की अवस्था के समाप्त होते ही कर्म पुनः उदय में आकर अपना फल देता है। उपशमन में कर्म की सत्ता नष्ट नहीं होती है, मात्र उसे काल विशेष तक के लिए फल देने में अक्षम बनाया जाता है । (९) निपत्ति- कर्म की उस अवस्था को निधत्ति कहते हैं जिसमें कर्म न तो अपने भावान्तर भेदों में रूपान्तरित हो सकते हैं और न अपना फल प्रदान कर सकते हैं। लेकिन कर्मो की समय मर्यादा और विपाक तीव्रता (परिमाण) को कम अधिक किया जा सकता है अर्थात् इस अवस्था में उत्कर्षण और अपकर्षण सम्भव हो सकते हैं । (१०) निकाचना- कर्मों का ऐसे प्रगाढ़ रूप में बन्धन होना कि उनकी काल मर्यादा और तीव्रता (परिमाण) आवान्तर प्रकृति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सके, न समय के पूर्व उनका भोग ही किया जा सके, निकाचना कहा जाता है । इसमें कर्म का जिस रूप में बन्धन हुआ होता है, उसी रूप में उपको अनिवार्यतया भोगना पड़ता है। कर्म विपाक की नियतता और अनियतता का प्रश्न : जैसा कि हमने अभी कर्मो की अवस्थाओं पर विचार करते हुए देखा कि कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका विवानियत है और उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520759
Book TitleSambodhi 1980 Vol 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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