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श्लेषअलंकारनु स्वरूप
२७ तेओ शुद्धश्लेष कहे छे. रुय्यके शब्दश्लेष अने अर्थश्लेष आप्या छे, तेने तेभो अनुक्रमे सभंगश्लेष अने अभंगश्लेष एवु नाम आपे छे, तेमज रुय्यकनी जेम तेओ श्लेषने अर्थालंकार माने छे. परन्तु रुय्यके आपेला उभयश्लेषने तेओ स्वीकारता नथी. वळी रुय्यकने अनुसरीने तेओ बंने अर्थ प्रकृत होय, अप्रकृत होय, के एक अर्थ प्रकृत अने बीजो अप्रकृत होय ते प्रमाणेना त्रण भेदो पण आपे छे. रुय्यके बे अर्थोना प्रकृत, अप्रकृत, के एक प्रकृत अने बीजो अप्रकृत एवा जे बे प्रभेदो आप्या तेनाथी इलेष अलंकारनु निरूपण कांइक गुंचवणभयुबन्यु छे. आ बधा ज प्रभेदोना उदाहरणो आपवां अशक्य नहीं तो पण अतिकठिन तो छे ब. रुय्यकनी सरखामणीमो मम्मटनु श्लेषविभाजन वधु तर्कसंगत लागे छ कारण के द्विअर्थी अभिव्यक्तिनां दरेक पासाने ते आवरी ले छे. रुय्यकनां विभाजनमां मम्मटना अर्थश्लेषने आवरी लेवायो नथी तेथी रुय्यकनु विभाजन तेटले अंशे अपूर्ण गणाय. अर्थश्लेषने स्थान आपीने अने तेने शुद्धश्लेष एबु' नाम आपीने जगन्नाथे आ अपूर्णताने दूर करी छे.
श्लेष ज्यारे बीजा अलंकारो साथे संयोजाय त्यारे श्लेषनी स्थिति विना त्रण मतो जगन्नाथ आपे छे परंतु तेओ मम्मटनो मत स्वीकारे छे अने एवो अभिप्राय ओपे छे के श्लेषअलंकारर्नु स्वतंत्र क्षेत्र छे छतां ते बीजा अलंकारोनो अनुग्राहक थई शके छे.
शब्दशक्तिमूलध्वनिमां वाच्यार्थ करतां व्यङ्गयार्थ गौण छे एवु सष्ट प्रतिदिन कयु छ तेमां जगन्नाथनी बुद्धिनुं ऊंडाण अने मौलिकता प्रतिबिंवित थाय छे. मात्र एक श्लिष्ट विशेष्यने कारणे शब्दशक्तिमूलध्वनि ध्वनिप्रभेद कहेवाय ते कारण तेने ध्वनिनी कक्षामां मूकवा माटे पूरंतु नथी. ध्वनिकारे समासोक्तिनी गुणीभूतव्यङ्गय काव्यनी कक्षामां गणना करी छे ज्यारे शन्दशक्तिमूलध्वनिने ध्वनिप्रभेद मान्यो छे. ध्वनिकारनों आ मा तेमना उत्तरकालीन आलङ्कारिकोए स्वीकार्यो छे. ध्वनिकार जेवा आलकारिकसरणिव्यवस्थापकनां प्रामाण्यने जगन्नाथ पडकारे छे अने एवा निष्कर्ष पर आवे छे के शब्द शक्तिमूटध्वनिमां वाच्यार्थ, व्यङ्गयार्थ करतां वधु सुदर छे. प्रलेष घणो चमत्कृतिपूर्ण अलंकार छे. द्विअर्थी शब्दो वर्णनीय विषयने विशिष्ट शोभा अने चमत्कृतिनु प्रदान करे छे. रिलष्ट शब्दो सर्व भाषाओमां होय छे परंतु प्रलेष अलंकारे संस्कृत साहित्यने एक विशिष्ट समृद्धि आपी छे. आ समृद्धिए एक बाजु संस्कृत साहित्यने Wit-वाग्वैदग्ध्य-आप्यु छे. Witमां बुद्धियुक्त विनोद होय छे अने तेथी आ विनोदने अमुक वर्ग ज माणी शके छे. श्लिष्ठ शब्दप्रयोगो कविना भाषा परनां प्रभुत्व अने पांडित्यना परिचायक बनी रहे छे. राजाओनी सभामां, काव्यगोडीओमां के पण्डितोना काव्यविनोदोमां रिलष्ट शब्दोथी खुब चमक आवती तेथी लेष अलंकारे कविओने अने गबलेखकोने खूब आकर्ष्या अने महाकान्यो, कथाओ अने आख्यायिकाओमा लेष अलंकारनो छुटथी प्रयोग थवा लाग्यो. परन्तु श्लेषना वधारे पडता प्रयोगे साहित्यमा एक प्रकारनी कृत्रिमता आणी. वळी xलेष ज्यारे मध्यमकक्षाना कविओ द्वारा प्रयोजाय त्यारे प्रमादगुणनो लोप थतो. आम लेष प्रत्येना कविओना आकर्षण साहित्यने कृत्रिमता अर्की, तेने निर्बळ अने नीरस पण बनाव्यु. काव्य ऊर्मिनो व्यापार छे अने ऊर्मिनं प्रत्यायन ते ज काव्यन लक्ष्य छे. कविना शब्दोमांथी ऊर्मिनुं आ प्रत्यायन एटलं शीघ्र थाय छे के आनन्दवर्धने रसध्वनि (ऊर्मिकाव्य) ने असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गय (जेमां शब्दना जुदा जुदा व्यापरोमांथी पसार थई भावकनु मन पर्यते रसनी अनुभूति करे त्यांसुधीना क्रमो क्या अने क्यारे पूरा थया तेनी खबर न पडे) तेवो कह्यो रसनिष्पत्तिनी आ प्रक्रिया अतिसुकमार अने सक्षम होवाथी वच्चे जरा पण विघ्नो आवे तेने सही शकती नथी. रिलष्ट शब्दो.
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