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________________ बापूलाल आंजना की आरती उतारी गयी थी वे प्रथम जिनेन्द्र सदा हर्षपूर्वक भारी कल्याण प्रदान करें। हरिवंशपुराण में भी ऋषभ के प्रति की गई स्तुतियों में कहा गया है कि आप मति, श्रुति व अवधि: इन तीन सर्वोत्तम. ज्ञानरूपी नेत्रों से सुशोभित है। आपने इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न होकर तीनों लोकों को प्रकाशित कर दिया । विक्रान्तकौरव में कहा है-उनके चरणकमल समस्त देवों के द्वारा पूज्य है। वे तीनों ज्ञान के धारक हैं । असि, मषि, कृषि विद्या, शिल्प और वाणिज्य इन छः वृत्तियों को तो उन्होंने प्रकट किया ही है साथ ही उन्होंने मोक्ष पद का मार्ग भी दिखलाया है। उनका स्मरण ही लोगों का कल्याण करने वाला है। अभिषेक, स्थापन, पूजन, शांति व विसर्जन इन ५ प्रकार के उपचारों में निपुण भव्य जीव जगत् के कल्याण के लिए उनकी पूजा करते हैं । " ... कैलास के शिखर को पवित्र करनेवाली, एवं सावधान गणधरों से युक्त भगवान् ऋषभदेव की समवसरणा भूमि पापों का नाश करने वाली है ।" युग के प्रारम्भ में जन लोग दानादि का महत्व नहीं जानते थे, तब उन्होंने दानादि के माहात्म्य को प्रतिष्ठा की। मोक्ष की इच्छा रखनेवाले दान के क्रम से अनभिज्ञ, तपश्चर्या को प्रकट करने में पराधीनता से हृत बुद्धि श्रेयान् ने घर पर आए ऋषभदेव को दान दिया था ।" - हस्तिमल्ल का यह विवेचन पौराणिक वर्णन से अत्यधिक मेल खाता है। हरिवंश पुराण में कहा गया है-'मनुष्य भव में आते ही आग्ने समस्त प्राणियों को कृतार्थ किया । इस भव में आप तोनों ज्ञान के धारक उत्पन्न हुए हैं। इसलिए आप 'स्वयंभू' कहे जाते हैं।" आदि तीर्थ कर भगवान् ऋषभदेव के अवतरित होने के भागवत में दो प्रयोजन बताए हैं-'मुनियों का धर्म प्रकट करना" तथा मोक्ष मार्ग को शिक्षा देना। तिलोयपण्णत्ति में सभी तीर्थंकर मोक्षमार्ग के नेता बतलाए गए हैं।" महापुराण में ऋषभदेव को जैन मार्ग का प्रवत्तन करने के लिए इन्द्र को नृत्य करती हुई एक अप्सरा की मृत्यु से जीवन की क्षणिकता से परिचय कराना पड़ता है। १८ ४-विक्रान्तकौरव १.१। ५-हरिवंशपुराण पृ० १२२, ८, १९६ । ६-विक्रान्तकौरव, ३.५५। ७-वही, ३,७१ । ८-वही, ४.१७। ९-वही, ५.१७ १०-वही, ६.९ ११.-विक्रान्तकौरव, अंक ४, पृ० १०६ । १२-वही, ३.७२ । १३ हरिवंशपुरोण, पृ० १२३, ८, २०५-२०६ । .: १४ वही, पृ० १२३, ८, २०७। १५ भागवत ५.३.२० । १६ वही, ५.६.१२। १७ तिलोयपण्णत्ति ४, ९२८ । १८ महापुराण ६,४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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