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- सागरमल जैन वह इस संसार में रहता हुआ भी तत्वरूप से इस संसार से उपर उठ गया है वह पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा के समान गीता भी इसी आत्म-अनात्मविवेक पर बल देती है। दोनों के निष्कर्ष समान है। शरीरस्थ ज्ञायकस्वरूप आत्मा को बोध कर लेना यही दोनों के आचारदर्शन का मन्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान असि के द्वारा अनात्म में आत्मबुद्धिरूप जे अज्ञान है उसके छेदन का निर्देश करते हैं तो समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा-छेनी से इस आत्म और आनात्म (जड़) को अलग अलग करने को वात कहते हैं।"
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता सभी में यह भेदविशान, आत्म-अनात्मविवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञज्ञान ही ज्ञानात्मक साधना का लक्ष्य है । यह मुक्ति या निर्वाग की उपलब्धि का एक आवश्यक अंग है। जब तक अनात्म में आत्मबुद्धि का परित्याग नहीं होगा तब तक आसक्ति समाप्त नहीं होती और आसक्ति के समाप्त न होने से निर्वाण या मुक्ति को उपलब्धि नहीं होती। आचारांगसूत्र में कहा गया है -
जो 'स्व'से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता वह 'स्व'से अन्यत्र रमता भी नहीं है और जो 'स्व'से अन्यत्र रमता नहीं है वह 'स्व'से अन्यत्र दृष्टि भी नही रखता है।"
__इस आत्मदृष्टि का उदय भेदविज्ञान के द्वारा ही होता है और इस भेदविज्ञान की कला से निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है।
१७, गीता १३१२३ १८, गीता ४१४२ एवं समयसार २९४ १९, जे अणण्णदं सी से अणण्णारामे, जो अणण्णारामे से अणण्णदंसी। -आचारांग १।२६
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