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________________ मेदविज्ञान : मुक्ति का द्वार मीताकार की भाषा में क्षेत्रक्षेत्रज्ञज्ञान' कहा गया है । गीताकार ज्ञान को व्याख्या करते हुए कहता है कि 'क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को यथार्थ रूप में जानने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। "गीता के अनुसार यह शरीर क्षेत्र है और इस को जानने वाला ज्ञायक स्वभाव युक्त आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है। वस्तुतः समस्त जगत जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है और परमात्मस्वरूप विशुद्ध आत्मतत्त्व ही ज्ञाता है, क्षेत्रज्ञ है। इन्हें क्रमशः प्रकृति और पुरुष भी कहा जाता है । गीता के अनुसार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का बोध कर लेना ही सच्चा ज्ञान है। गीता में सांरव्य शब्द का ज्ञान के अर्थ में प्रयोग हुआ है और उसकी व्याख्या में आचार्य शकर ने यही दृष्टि अपनायी है। वे लिखते है कि "यह त्रिगुणात्मक जगत था प्रकृति ज्ञान के विषय है, मैं उनसे भिन्न हूँ (क्योंकि ज्ञाता और ज्ञेय, द्रष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते है) उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षी मात्र हूं, उनसे विलक्षण हूँ, इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करना यही ज्ञान है ।" ज्ञायकस्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध के लिये जगत के जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता है वे हैं: पंचमहाभूत, देह, अहंभाव, विषययुक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, पांचौं इन्द्रियों के विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, सुख-दुःखादि भावों की चेतना अदि । यह सभी क्षेत्र अर्थात् ज्ञान के विषय हैं और इसलिए ज्ञायक आत्मा इन से भिन्न है।" गीता यह मानती है कि आत्मा से अपनी मित्रता का बोध नहीं होना यही बंधन का कारण है।" जब यह पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक पदार्थों को प्रकृति में स्थित होकर भोगता है तो अनात्म प्रकृति में आत्मबुद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेता है ।५ दमरे शब्दों में अनात्म में आत्मबुद्धि करके बब उसका भोग किया जाता है तो उस आत्मबुद्धि के कारण ही आत्मा बन्धन में आ जाता है । वस्तुत: इस शरीर में स्थित होता हुआ भी आत्मा इससे भिन्न ही है, यही परमात्मा कहा जाता है।" यह परमात्मस्वरूप आत्मा शरीर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही बन्धन में रखा हुआ है जब भी इसे इस भेदविज्ञान के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है वह मुक्त हो जाता है। अनात्म से रही हुई आत्मबुद्धि को समाप्त करना यही भेदविज्ञान है और यही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञान है । इसी के द्वारा अनात्म एवं आत्म के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है और यही मुक्ति का मार्ग भी है। गीता कहती है “जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मक प्रकृति और परमात्मस्वरूप ज्ञायक आत्मा के यथार्थ स्वरूा का तत्त्व दृष्टि से जान लेता है ११, क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोनि यतज्ज्ञानं मतं मम | गीता १३१२ १२, गीता १३१ १३, इमे सत्त्वरजस्तमासि गुणा मया दृश्याः । अहं तेभ्योऽन्यः। तद्व्यापारसाचिभूतो नित्यो गुणविलक्षण आत्मेति चिन्तनम् एषः सारख्यः । १४, गीता १३।५-६ १५, गीता १३१२१ १६, गीता १३६३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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