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________________ १५. मेदविज्ञान मुक्रि का द्वार भी हमारा निब रूप. नहीं हो सकते हैं। यद्यपि वे आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न है, क्योंकि उसका निजरूप नहीं है। जैसे उष्ण पानी में रही हुई उष्णता, उसमें सवे हुए भी उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण है वैसे ही राबादि भाव आत्मा में होते हुए भी उसका अपना स्वरूप नहीं है। यह स्व स्वरूप का बोध ही जैन साधना का सार है जिसकी विधि हे भेदविज्ञान अर्थात् बो स्व से भिन्न है उसे 'पर' के रूप में जाकर उसमें रहे हुइ तादात्म्यता के बोध को तोड़ देना । वस्तुतः भेद विज्ञान की यह प्रक्रिया हमें जैन दर्शन में भी उपलब्ध होती है । . . . . बौद्ध विचारणा में भेदाभ्यास.. जिस प्रकार जैन साधना में सम्यक् ज्ञान का वास्तविक अयोग भेदाभ्यास माना गया उसी प्रकार बौद्ध साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है।. भेदाभ्यास की साधना में जैन साधक वस्तुतः स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर स्व स्वरूप (आत्म) और पर स्वरूप (अनात्म) में भेद स्थापित करता है और अनात्म में रही हुई आत्म बुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपनी साधना के लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति करना है। बौद्ध साधना में भी साधक प्रज्ञा के सहारे जागतिक उपदानों (धर्म) के स्वभाव का मन कर, उनके अनात्म स्वरूप में आत्म बुद्धि का परित्याग कर, निर्वाण का लाभ करता। दोनों ही विचारणायें यह स्वीकार करती है कि स्वभावका बोध होने पर हो निर्वाण की उपकति होती है। अनात्म के स्वभाव का ज्ञान और उसमें आत्म बुद्धि का परित्याग दोनों दर्शनों में साधना के अनिवार्य तत्त्व है। जिस प्रकार जेन विचारको ने रूप, रस, वर्ण, देह, इन्द्रिय, मन और अध्यवसाय आदि को अनारम कहा उसी प्रकार बौद्ध आममों में भी दोह. इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पश तथा मन आदि को अगत्म कहा गया है और क्षेनों में साधक के लिये यह स्पष्ट निर्देश किया कि बह धनमें आरम बुद्धि नहीं रखे। लगभग समान शब्दों और शैली में दोनों ही अनात्मभावना या भेदविज्ञान की अवधारणा ही प्रस्तुत करते हैं जो तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन कर्ता के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आपने न साधना में भेदाभ्यास की इस धारणा का आस्वादन किया, अब बस इसी सन्दर्भ में बुद्ध सामग्री के विकार में भी अवगाहन कीजिये । बुद्ध कहते हैं., "भिक्षुओं चक्षु अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, जो दुःख है वह भनाम है। को अनात्म है वहं न मेरा है न मैं हूँ, न मेरा आरमा है, इसे यथार्थतः मापूर्वक पान लेना चाहिये ।" भिक्षुओं ! प्राण अमित्य है, जिवा अनित्य है, काय अनित्य है, मन अनित्य है। जो अनित्य है वह दुश्ख है, जो दुःख है वह अमात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिये। " : .. "भिक्षुओं! रूप अनित्य है । जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह भनात्म हैं, ओ अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञा पूर्वक कर लेना चाहिये।" __भिक्षुओं ! शब्द अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है यह अनारम यो अनात्म है वह न मेरा हैन मैं हूँ न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रशा पूर्वक पान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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