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________________ सागरमल जैन जैन विश्वारणा में भेदविज्ञान आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में इन मेदविज्ञान की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखते - रूप आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य ऐसा जिन कहते है। वर्ग आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रूप अन्य है और आमा अन्य है ऐसा जिन कहते है। गंध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः गंध अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं । ૪ रस आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रस अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते है। स्पर्श आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः स्पर्श अन्य है और आस्मा ジ अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं। कर्म आत्मा नहीं है क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानते अतः कर्म अन्य है और आत्मा अन्य ऐसा जिन कहते हैं। अध्यवसाय आत्मा नहीं है क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी शायक के द्वारा जाने जाते हैं वे स्वतः कुछ नहीं जानते कोच के भाव को मानने वाला शायक उससे भिन्न है) अतः अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है।' है, अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि से आत्मा न राम है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध न मान है, न माया है, न लोभ है। अपने शुद्ध शायक स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं हैं।" वस्तुतः आरमो जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होता है संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी वित्वृत्तियां और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह 'पर' को पर के रूप में जान लेता है और उनसे अपनी पृथक्ता -बोध कर लेता है तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित हो बाता उद्घाटित होता उद्घाटित होता है क्योंकि जिसने पर को का या राग के लिये कोई स्थान नहीं रहता है, यही वह अवसर होता है जब मुक्ति का द्वार पर के रूप में जान लिया है तो उसके लिए ममत्व है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है। मेदविज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सबसे पहले वस्तुओं एवं पदार्थों से अपनी भिजनता का बोध करता है। चाहे अनुभूति के स्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो किन्तु ज्ञान के स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है। क्योंकि यहां तादात्म्य नहीं रहता है "अतः पृथक्ता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद क्रमशः उसे शरीर से मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादिक भावों से अपनी भिन्नता का बोध करना होता है जो अपे शाकृत रूप से कठिन और कठिनतर है क्योंकि यहां इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना रहता है फिर भी हमें यह जान लेना होगा कि जो कुछ पर के निमित्त से है वे हमारा "स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव भी पर के निमित्त से ही है अतः वे हममें होते हुए Jain Education International ६. देखिये समसार ३९२-४०२ ७. देखिये - नियमसार ७७-८१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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