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________________ १० सुषमा कुलश्रेष्ठ निरन्तर निःसृत नीरबिन्दुओं से वीणातन्त्री में कैसी विस्वरता आ जाती है, इसका ज्ञान यक्षपली को है जो कि उसके वीणावादनकौशल को व्यक्त करता है। वीणा की तन्त्री प्रत्यक्ष वादनक्रियामें की गई छेडने की क्रिया से न्यूनाधिक मात्रा में विस्वर हो जाती है, यह मत क्रियाकुचक. सङ्गीतज्ञों के लिए अनुभवसिद्ध है। स्वर की इस सूक्ष्म न्यूनाधिकता को जानकर उसको स्वर में मिलाने के लिए स्वरज्ञान की आवश्यकता होती है जो प्रयास एवम् अनुभव से ही संभव है। इन्दुमती के मृतशरीर की अस्तव्यस्तता को व्यक्त करने के लिए महाकवि ने ऐसी विगततन्त्री वीणा का उल्लेख किया है जिसकी तन्त्रियाँ अस्तव्यस्त हैं और जिनको पुनश्च मिलाने के लिए वीणावादक गोद में ले बैठा है अर्थात् शिथिल एवं विस्वर तन्त्रियों वाली वीणा की सारणा करने के लिए वीणावादक जिस प्रकार उसे अपनी गोद में उठाकर स्वर में मिलाने के लिए उद्योग करता है, उसी प्रकार इन्दुमति के मृत देह को अपनी गोद में लेकर अज राजा इन्दुमति के देह को सहला रहे हैं प्रतियोजयितव्यवल्लकीसमवस्थामथ सत्त्वविप्लवात् ।। स निनाय नितान्तवत्सलः परिगृह्योचितमङ्कमङ्गनाम् ॥ रघु० ८/४१ तन्त्री के स्वर में मिलाये जाने की प्रक्रिया से कवि अच्छी तरह परिचित है। पार्वती के मधुर स्वर का वर्णन करते हुए कवि उपमा भी सङ्गीतसम्बन्धिनी ही देते हैं। मधुर स्वर . वाली पार्वती के बोलने पर मधुर स्वर के लिए प्रसिद्ध कोकिल का भी स्वर श्रोता के लिए उसी प्रकार श्रुतिकटू होता था, जिस प्रकार ठीक न मिली हुई तन्त्री का स्वर । कविकृत यह वर्णन उनके सङ्गीतविषयक परमवैदुष्य का सूचक है- सङ्गीत से अपरिचित जन के लिए ठीक स्वर या बेसुरे स्वर में चाहे कोई अन्तर न हो किन्तु सङ्गीताभिश जन के लिए वितन्त्री का स्वर निश्चय ही बड़ा अरुचिकर होता है स्वरेण तस्याममृतस्रुतेव प्रजल्पितायामभिजातवाचि । अप्यन्यपुष्टा प्रतिकूलशब्दा श्रोतुर्वितन्त्रीरिव ताड्यमाना ।। कुमार० १/४५ राजा अग्निवर्ण स्वयं संगीतकुशल हैं और उनके अङ्क में वीणा सदैव विराजमान रहती है अङ्कमपरिवर्तनोचिते तस्य निन्यतुरशून्यतामुभे । वल्लकी च हृदयङ्गमस्वना वल्गुवागपि च वामलोचना ॥रघु० १९/१३ राजा अग्निवर्ण की अन्तःपुर-प्रमदाएं सङ्गीतशिल्प में निपुण बतलाई गई है। अङ्गारक्रीडा के कारण ओष्ठ तथा अङ्क के क्षत-विक्षत होने पर भी वेणु तथा वीणा का वादन वे अतिकौशल से करती हैं वेणुना दशनपीडिताधरा वीणया नखपदाङ्कितोरवः । . शिल्पकार्य उभयेन वेजितास्तं विजिह्मनयना व्यलोभयन् ॥रघु. १९/३५ रघुवंश के अष्टम सर्ग में नारदमुनि गोकर्णक्षेत्रस्थ शङ्कर के दर्शन के लिए जा रहे थे। उस समय उनकी वीणा में लगी हुई पुष्पमाला इन्दुमति के प्रवास्थल पर गिरी जिससे उनकी मृत्यु हो गई।' इस प्रसङ्ग में कवि ने उावीणयितु (वीणयोपसमीपे गातुम् ), आतोद्य तथा १. अथ रोषसि दक्षिणोदधेः भितगोकर्णनिकेतमीश्वरम् । उपवीणयितु ययौ रवेरुदयावृ. तिपयन मारदः ॥ कुसुमैग्रंथितामपार्थिवै: स्रजमातोद्यशिरोनिवेषिताम् । अहरस्किल तस्य वेगवानधिवासस्पृहयैव मारुतः ॥ भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा परिवादिनी मुनेः । ददृशे पवनावलेपवं सजती बाष्पमिवाञ्जनाविलम् ॥रघु० ८/३३-३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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