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कालिदास की कृतियों में
इस बीणा को 'घोष' या 'ब्रह्मयोणा' भी कहते हैं। यह सब वीणाओं की जननी है । सब पापों से विमुक्त कर सकती है क्योंकि विष्णुरूप, लक्ष्मीजी पत्रिकारूप, ब्रह्मा वासुकिरूप, चन्द्र जीवारूप और सूर्य
इसके दर्शन एवं स्पर्श भी भुक्तिमुक्तिदायक हैं । यह इसमें शिवजी दण्डरूप, पार्वतीजी तन्त्रीरूप, ककुभ तुच (कद्दू ) रून, सरस्वती कद्दू की नाभिरूप, दोरक सारिका रूप हैं । अतएव वीणा सर्वदेवमय होने के कारण सकल मङ्गलों का स्थान है । एकतन्त्री में सारिकायें न होने के कारण समस्त ग्राम, मूर्च्छनाएं एवं २२ श्रुतियाँ प्रतिक्षण उपस्थित रहती थीं
श्रुतयोऽथ स्वरा मूर्च्छना नानाविधास्तथा । एकतन्त्री कवीणाय सर्वमेतत्प्रतिष्ठितम् ॥
- तन्त्रीमार्द्रा नयनसलिलैः सारयित्वा कथञ्चिद्
ही है । भरत, मतन
भूयोभूयः स्वयमपि कृतां मूच्र्छनां विस्मरन्ती ॥ उत्तरमेघ २६ यहाँ तन्त्री से सम्भवतः कालिदास का अभिप्राय एकतन्त्री से तथा नारद के समय तक जिसे घोषक, घोषवती अथवा ब्राह्मी वीणा कहते थे, उसी को नान्यदेव, सुधाला तथा शार्ङ्गदेव आदि के समय में एकतन्त्री के नाम से पुकारा गया है । नारदकृत सङ्गीतमकरन्द में १९ वीणाओं के नाम प्राप्त होते हैं। वे हैं
१. कच्छपी
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२. कुब्जिका ३. चित्रा
४. वदन्ती ५. परिवादिनी
भरतभाष्य नान्यदेव (पाण्डुलिपि)
६. जया
७. घोषावती ८. ज्येष्ठा
११. वैष्णवी
१२. ब्राह्मी
१३. रौद्री
१४. कूर्मी
१५. रावणी
१६. सारस्वती
१७. किन्नरी
१८. सैरन्ध्री १९. घोषका
९. नकुली
१०. महती
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तारों की संख्या तथा वादनविधि के भेद से एक बीणा के अनेक भेद बन गये। इसी बात को सोमेश्वर ने अपने मानसोल्लास में लिखा है-
तन्त्री भेदैः क्रियामेदेवणावाद्यमनेकधा ।३/५७२
मेघदूत की नायिका वक्षपत्नी कुशल संगीतज्ञा है और वीणावादन के सहारे अपने विरह के दिन व्यतीत करती है। वीणा को अपने उत्सङ्ग पर रखकर उसके वादन के द्वारा यक्षपत्नी प्रियंविरहसम्बन्धी स्वनिबद्ध गीत उच्च स्वर से गाने के लिए समुत्सुक है। नेत्रों से अनवरत निःसृत 'अश्रुओं से क्लिन्न होने के कारण वीणा की तन्त्री क्वणन के लिए अनुपयुक्त हो रही है । ऐसी विस्वरता को दूर करने के लिए यक्षपत्नी को तन्त्री की बारंबार सारणा करनी पड़ रही है। स्वर में मिलाई गई तन्त्री का क्लिन्नता के कारण विस्वर हो जाना स्वाभाविक है । उसको पुनः यथास्पर मिलाने के लिए सङ्गीत की क्रियाकुशलता अपेक्षित है. इसमें संदेहावकाश नहीं ।
स. २
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