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कालिदास को कृतियों में परिवादिनी इन सङ्गीतविषयक अन्दों का प्रयोग किया है। आतोद्य का अर्थ वाद्य है। यहाँ नारद की वीणा के लिए परिवादिनी शब्द प्रयुक्त है। कहते हैं कि सर्वप्रथम कालिदास ने ही परिवादिनी वीणा का उल्लेख किया है। उसके बाद इसका नाम सङ्गीत-मकरन्द में उपलब्ध होता है। यतिमान-पादखण्ड, अभिधानचिन्तामणि आदि में भी परिवादिनी वीणा का उल्लेख प्राप्त होता है। उसमें सात तन्त्रियाँ होतो है... सप्तभिः तन्त्रीभिः दृश्यते परिवादिनी ।
-वाद्यप्रकाश, ३०, ततवाद्यानि, (पाण्डुलिपि) . वीणा तु वल्लको, विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी इत्यमरः ।
कालिदास ने नारदवीणा के लिए परिवादिनी का प्रयोग किया है जबकी माघप्रणीत शिन- मालवध में नारदर्वणा के लिए 'महती' यह नाम प्रयुक्त हुआ है
रणद्भिराघनया नभस्वतः पृथग्विभिन्नश्रुतिमण्डलैः स्वरैः ।। स्फुटीभवग्रामविशेषमूर्च्छनामवेक्षमाणं महती मुहुर्मुहुः ॥१॥ सङ्गीतमकरन्द में परिवादिनी और महती दोनों का ही उल्लेख है।
ऋतुसंहार में दो स्थलों पर तन्त्री तथा वल्लकी का प्रयोग उपलब्ध होता है। सुतन्त्रिगीतं मदनस्य दीपन शुचौ निशीथेऽनुभवन्ति कामिनः । ऋतु. १/३
सवल्लकीकाकलिगोतनिष्वनैर्विबोध्यते सुप्त इवाद्य मन्मथः ॥ ऋत. १४८ : वीणावादक अथवा वीणाधारी के लिए कालिदास ने वीणिन् तथा प्रवीण शब्दों का प्रयोग किया है यथा मेघदूत में
सिद्धद्वन्द्वर्जलकणमयाद्वीणिभिस्त्यक्तमार्ग । पूर्वमेघ ४९ .. तथा कुमारसंभव में
... विश्वावसुप्राग्रहरैः प्रवीणैः सङ्गीयमानत्रिपुरावदानः ।७४८ .... कवि ने यहाँ जानबूझकर विश्वावसु का नाम लिया है क्योंकि वे गन्धर्वश्रेष्ठ (गन्धर्षप्रमुख) तथा इन्द्रसभा के सङ्गीतज्ञ थे। उनकी वीणा का नाम बृहती था। प्रवीण का अ वीणा येषां ते अथवा वीणया प्रगायन्तीति ।
गायकों एवं वादकों को अपने वाद्ययन्त्रों से विशेष लगाव होता है और इसलिए वे उनकी पूर्ण सुरक्षा का बहुत ध्यान रखते हैं। मेघदूत में सिद्ध-दम्पति के, जलकणों से वीणा के तारो के नष्ट होने के भय से मेष के मार्ग को छोड़ देने तथा यक्षिणी के भी अपने अश्रुओं से भीगे हुए तन्त्री के तारों को आँसू पोछकर ठीक कर देने की कल्पना की गई है। आज भी देखा जाता है कि सङ्गीतज्ञों के गृहों में सबसे अच्छे तथा सुरक्षित स्थान पर बाययात्रों को रखा जाता है। - आधुनिक काल के प्रसिद्ध एवं प्रवलित तन्त्रीवाद्य हैं-रुद्रवीणा, तजौरवीणा या दक्षिणात्यवीणा, महानाटकवीणा या गोट्टवाद्य, सारङ्गी, सितार, सरोद, दिलरुबा, सुरबहार, इसराज और तानपूरा ।
इस प्रकार कालिदास की कृतियों में उपलब्ध उल्लेख यह सिद्ध करते है कि महाकवि कालिदास तत या तन्त्री वाद्यों से भलीभाँति परिचित थे। सङ्गीत की तीनों विधाओं में कालिदास की अदभुत दक्षता थी जो किसी भी अन्य संस्कृत कवि में अलब्ध नहीं होती। पुरातन काल से लेकर आजतक कालिदास की सर्वातिशायिनी लोकप्रियता का यह भी एक कारण संभावित है।
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