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मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी
प्रारम्भिक मूर्तियां
प्राचीनतम जिन चौमुखी मूर्तियां कुषाणकाल की हैं। मथुरा से इन मूर्तियों के १५ उदाहरण मिले हैं। सभी में चार जिन आकृतियां साधारण पीठिका पर कायोत्सर्ग में खड़ी हैं।" श्रीवत्स से युक्त सभी जिन निर्वस्त्र है । चार में से केवल दो ही जिनों की पहचान जटाओं
और सात सर्पफणों को छत्रावली के आधार पर क्रमशः ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ से संभव है (चित्र १-२)।" कुषाणकालीन जिन चौमुखी मूर्तियों में उपासको एवं भामण्डल के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रतिहार्य (यथा, सिंहासन, चामरधर सेवक, त्रिछत्र, अशोक वृक्ष, दिव्य भवनि, सुरपुष्पवृष्टि) उत्कीर्ण नहीं हैं। गुप्तकाल में जिन चौमुखी का उत्कीर्णन लोकप्रिय नहीं प्रतीत होता । हमें इस काल की केवल एक मूर्ति मथुरा से ज्ञात है जो पुरातत्त्व संग्रहालय, मथुरा (बी ६८) में सुरक्षित है। कुषाणकालीन मूर्तियों के समान हो इसमें भी केवल ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ की ही पहचान संभव है। पूर्वमध्ययुगीन मूर्तियां : ल० ८ वीं से १२ शती ई.)
बिनों के स्वतंत्र लांछनोंके निर्धारण के साथ ही ल• आठवीं शती ई० से जिन चौमुखी मातियों में सभी जिनो के साथ लांछनों के उत्कीर्णन की परम्परा प्रारम्भ हुई । ऐसी एक प्रारंभिक मूर्ति राजगिर के सोनभण्डार गुफा में है। बिहार और बंगाल की चौमुखी मूर्तियों में सभी जिनों के साथ स्वतंत्र लांछनों का उत्कीर्णन विशेष लोकप्रिय था । अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः कषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों के समान केवल दो ही जिनों (ऋषभनाथ एवं पार्वनाथ) की पहचान संभव है। चौमुखी मूर्तियों में ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दन, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, कुंथुनाथ, नेमिनाथ, शांतिनाथ, और महावीर की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।
ल. आठवीं-नवीं शती ई० में जिन चौमुखी मूर्तियों में कुछ अन्य विशेषताएं भी प्रदर्शित हुई। चौमुखो मूर्तियों में चार प्रमुख जिनों के साथ लघु जिन मूर्तियों का उत्कीर्णन • भी प्रारम्भ हुआ। लघु जिन मूर्तियों की संख्या सदैव घटती बढती रही है। इनमें कभीकभी २० या ४८ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जो चार मुख्य जिनों के साथ मिलकर क्रमशः जिन चौवीसी और नन्दीश्वर द्वीप के भाव को व्यक्त करती हैं।
चारों प्रमुख जिन मूर्तियों के साथ सामान्य प्रतिहार्यों, एवं कभी कभी यक्ष-यक्षी युगलों और नवग्रहों को भी प्रदर्शित किया जाने लगा। साथ ही साथ चौमुखी मूर्तियों के शीर्ष भाग छोटे जिनालयों के रूप में निर्मित होने लगे, जिनम आमलक और कलश भी उत्कीर्ण हये । कछ क्षेत्रों में चतुर्मुख जिनालयों का भी निर्माण हआ। चतर्मख जिनालय का एक प्रारंभिक उदाहरण (ल. ९ वी शती ई.) पहाड़पुर (बंगाल) से मिला है। यह चौमुख मन्दिर चार प्रवेशद्वारों से युक्त है, और इसके मध्य में चार प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। ल. ग्यारहवों शती ई. का एक विशाल चौमुखी जिनालय इन्दौर (गुना, म. प्र.) में है" (चित्र-७)। चारों जिन आकृतियां ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। और समान प्रातिहार्यों एवं यक्ष-यक्षी युगलों से युक्त है । मूलनायकों के परिकर में जिनों, स्थापना युक्त जैन आचार्यों एवं गोद में बालक लिये स्त्री-पुरुष युगलों की कई आकृतियां उत्कीर्ण हैं। .. ग्यारहवींबारहवीं शती इ० में स्तंभो के शीर्षभाग में भी चौमुखी का उत्कीर्णन प्रारम्भ हुआ। ऐसे दो उदाहरण पुरातात्त्विक संग्रहालय, ग्वालियर एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ (०,७३) में हैं।
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