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________________ सर्वतोभद्रिका जिन मूर्तियां या जिन चौमुखी मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी प्रतिमा सर्वतोभद्रिका या सर्वतोभद्र प्रतिमा का अर्थ है वह प्रतिमा जो सभी ओर से शुभ या मंगलकारी' है, अर्थात् ऐसा शिल्पकार्य जिसमें एक ही शिलाखण्ड में चारों ओर चार प्रतिमाएं निरूपित हो। पहलो शती ई० में कुषाण काल में मथुरा में इनका निर्माण प्रारम्भ हुआ। इन मूर्तियों में चारों दिशाओं में चार जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। लेखों में ऐसी मूर्तियों को 'प्रतिमा सर्वतोभद्रिका', 'सर्वतोभद्र प्रतिमा', 'शवदोभद्रिक एवं 'चतुर्बिबि" कहा गया है। इन मूर्तियों को चौमुखी, चौमुख और चतुर्मुख भी कहा गया है। ऐसी प्रतिमाएं दिगंबर स्थलों पर विशेष लोकप्रिय थीं। जिन चौमुखी की धारणाको विद्वानों ने बिन समवसरण की प्रारंभिक कल्पना पर आधारित और उसमें हुए विकास का सूचक माना है।' पर इस प्रभाव को स्वीकार करने में कई कठिनाईयां हैं । समवसरण वह देवनिर्मित सभा हे जहां देवता, मनुष्य एवं पशु-पक्षी जिनों के उपदेश का श्रवण करते हैं । कैवल्य प्राप्ति के बाद प्रत्येक जिन अपना प्रथम उपदेश समवसरण में ही देते है । समवसरण तीन प्राचीरों वाला भवन है, जिसके ऊपरी भाग में अष्टप्रतिहार्यों से युक्त जिन ध्यान मुद्रा में विराजमान (पूर्वाभिमुख) होते हैं। सभी दिशाओं के श्रोता जिनका दर्शन कर सकें, इस उद्देश्य से व्यंतर देवों ने अन्य तीन दिशाओं में भी उसी जिन की रत्नमय प्रतिमाएं स्थापित की थी। यह उल्लेख सर्वप्रथम आठवींनवीं शती ई० के जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। प्रारंभिक जैन ग्रन्थों में चार दिशाओं में चार जिन मूर्तियों के निरूपण का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। ऐस. स्थिति में कुषाणकालीन जिनकी चौमुखी में चार अलग-अलग जिनों के उत्कर्णन को समवसरण की धारणा से प्रभावित और उसमें हए किसी विकास का सूचक नहीं माना जा सकता । आठवी-नवीं शती ई. के ग्रन्थों में भी समवसरण में किसी एक ही जिन की चार मर्तियों के निरूपण का उल्लेख है. जब कि कुषाणकालीन चौमुखी में चार अलग-अलग जिनों को चित्रित किया गया है। समवसरण में जिन सदैव ध्यानमुद्रा में आसीन होते हैं, जब कि कुषाणकालीन चौमुखी की जिन मर्तियां कायोत्सर्ग में खड़ी हैं। जहां हमें समकालीन जैन ग्रन्थों में जिन चौमखी मर्सि की कल्पना का निश्चित आधार नहीं प्राप्त होता है, वहीं तत्कालीन और पूर्ववर्ती शिल्प में ऐसे एकमुख और बहुमुख शिवलिंग एवं यक्ष मूर्तियां प्राप्त होती हैं जिनसे जिन चौमुखी की धारणा के प्रभावित होने की संभावना हो सकती है। जिन चौमुखी पर स्वस्तिक" और मौर्य शासक अशोक के सिंह" एवं वृषभ स्तम्भ शीर्षों का भी कुछ प्रभाव असम्भव नहीं है। जिन चौमुखी प्रतिमाओं को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है । पहले वर्ग में ऐसी मूर्तियां हैं जिनमें एक ही जिन की चार मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । दूसरे वर्ग की मूर्तियों में चार अलग-अलग जिनों की मूर्तियां है। पहले वर्ग की मूर्तियों का उत्कीर्णन सातवीं-आठवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ। किन्तु दूसरे वर्ग की मूर्तियां पहली शती ई० से ही बनने लगी थीं। मथुरा की कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियां इसी दूसरे वर्म की है । तुलनात्मक दृष्टि से पहले वर्ग की मूर्तियां संख्या में बहुत कम है । पहले वर्ग की मूर्तियों में जिनों के लांछन सामान्यतः नहीं प्रदर्शित हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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