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________________ Review आत्मा और कर्म इस विषयको लेकर बो चिंतन मुनिजी ने इसमें दिया है वह रोचक है और कर्म से बन्धन कैसे होता है और चैतन्यको कर्म से मुक्त करने का क्या उपाय हैइसका विवरण किसीको भी आत्मोपलब्धिके लिए प्रेरित करे ऐसा हुआ है । –दलसुख मालवणिया निगंठ शातपुत्त-लेखक, ज्ञानचंद जैन, प्रकाशक, हिन्दी समिति, उत्तर प्रदेश शासन, लखनौ, ई.१९७७, आठ रुपये । श्री ज्ञानचंद जैनने भगवान महावीर की यह जीवन गाथा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिसे लिखने का प्रयास किया है। प्राचीन जैन आगम आचारांग और कल्पसूत्र जैसे ग्रन्थों का उपयोग किया गया है । किन्तु साथ ही बादके ग्रन्थों में आने वाली घटनाओं का भी संकलन किया है । इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि लेखक शुद्ध इतिहास-दृष्टि से यह गाथा लिखने में सफल हुए हैं-यह स्थिति नहीं । किन्तु भ. महावीर की जीवनी सुवाच्यरूप में उपस्थित हुई है यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। इतिहास-दृष्टि से देखा जाय तो उनके जीवनकी सामग्री जो आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में मिलती है उतनी ही है। बाकी सब कथाभाग क्रमशः जोडा गया है और वह अब इतिहास माना जाने लगा है। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ इतिहास के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है। वस्तुत: भ. महावीर के जीवन के लिखनेवालों के लिए यह जानना जरूरी है कि भ. महावीर के जीवनकी रूपरेखा तीन स्तरों में है । प्रथम स्तर वह है जिसमें उनके त्याग और तपस्या का ही वर्णन मिलता है। उनके जीवन की अन्य कोई घटना मिलती नहीं । उनको अभी लौकिक पुरुष ही माना जाता है। दूसरे स्तर में उनके बाल जीवन और साधक जीवन तथा तीर्थकर बनने के बाद उनके शिष्यपरिवार आदि का विवरण मिलता है। तीसरे स्तर में उनके साधक जीवन की अनेक घटनाएँ, उनका विहारक्रम आदि तथा विशेषतः पूर्व जन्मों की घटनाओं का विवरण मिलता है, जिनका कि संबन्ध उनके इस जीवन की घटनाओं के साथ जो वास्तविक रूप से घटी हों या न घटी हो, जोडा गया है । अब वे अलोकिक पुरुष के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं । ऐसी स्थिति भारतवर्षीय प्रत्येक प्राचीन महापुरुषों की जीवनी में हमें मिलती है । और भारतीयों में अपना इतिहास सुरक्षित रखने की परंपरा दृढ नहीं हुई-इस आक्षेत्र में कुछ तथ्य है ऐसा प्रतीत होता है । जब पूरी ऐतिहासिक सामग्री का ही अभाव हों फिर भी जीवन लिखना हो तो मध्यम मार्ग ही श्रेय है । अत एव प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखकने सत्य-अर्धसत्य आदि को मिलाकर जो जीवन लिखा है, वह आदरणीय होगा इसमें संदेह नहीं है। लेखकने आचागंग आदि जो प्राचीनतम सामग्री है उसका जब उपयोग किया है तब श्वेताम्बर संमत गर्भापहरण जैसी अलौकिक घटना का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। यह संभव हो या असंभव यह दूसग प्रश्न है । उल्लेख करके उस घटना को क्यों कैसे स्थान मिला इसकी चर्चा की जा सकती थो । किन्तु इतिहास के नाम पर सर्वथा लोप कर देना उचित नहीं जंचता । लेखक ने दिगम्बर को अमान्य ऐसी विवाह की घटना को लिया यह उनकी इतिहास दृष्टि को सिद्ध करता है और ताटस्थ्य को भी। पृ. ४८ में दी गई भ. महावीर की दिनचर्या, एक साधु के लिए जो बादमें व्यवस्थित हुई,दी गई है वह उचित नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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