SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 790 Review जेग, मुनि नथमल, आदर्श साहित्यसंघ प्रकाशन, चूरू, १९७८, रु. १२=०० । महाप्राज्ञ मुनि श्री नथमल जो जैनयोग के पुनरुद्धार के यशके भागी हैं । प्रायः लुप्त जैनयोग परंपराका निरूपण इस ग्रन्थ में करके मुनिश्री ने ध्यानप्रक्रिया में रस रखने वालों के लिए एक उपयुक्त साधन उपस्थित किया है । इसमें साधना पद्धतिका भी विशद विवेचन अनुभव के आधार पर किया गया है - यह विशेषता है । अनुभव के आधार पर होने से ही इसमें बौद्ध और वैदिक साधना प्रक्रिया का सम्मिलन किया गया है। प्रक्रिया विलुप्त होने से जहाँ से जो भी ग्राह्य मिला उसे जैन प्रक्रिया में संमिलित करने में मुनिश्री ने संकोचका अनुभव नहीं किया—यहो इस ग्रन्थ की विशेषता है । आचार्य हरिभद्र और आ० हेमचन्द्रादि के बाद साधना की प्रक्रिया में यह नया प्रयोग है ओर उसकी उचितता तो स्वयं साधक ही बता सकता है । किन्तु मुनिश्री द्वारा निर्दिष्ट यह पद्धति अनेक साधकों के अनुभव के बाद ही निश्चतरूप धारण करेगी । यह तो अभी प्रारंभ है । जैन ग्रन्थ में शरीर और आत्मा के भेदज्ञान द्वारा अपने स्वरूप का संबोध कैसे होता हैइसका निरूपण उत्तम प्रकारसे हुआ है । मूढता को निराकृत करके भावना द्वारा अन्तरष्टि का कैसे विकास होता है - इसका विस्तृत निरूपण हैं और उसमें विशेषतः अन्यत्वानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानु०, अशरणानु०, आदि का विशद विवेचन है । धर्म ध्यान की विशद विवेचना है । लेश्याका विवेचन आभामंडल के रूपमें नये आयामों को लेकर है जो विशेष ध्यान देने योग्य है । चैतन्य केन्द्रों की विवेचना और तेजोलेश्या की नई व्याख्या विशेषतः विचारणीय है । संकल्प शक्ति कैसे बढ़ाई जाय उसका प्रायोगिक विवरण है और अंत में आचारांगसूत्रमें प्रेक्षाध्यान के तत्त्व और भ० महावीर के साधनाप्रयोग देकर पुस्तकको बहुमूल्य बनाया है । छपाई सुन्दर है । किन्तु कही २ भ्रान्ति रह गई है, जैसे पृ० १३ में "बन्ध और संवर में ये दोनों मनको चंचल बनाते हैं" ऐसा मुद्रित है, किन्तु वहाँ "बन्ध और आस्रव" होना चाहिए । “क्रियावाद" शब्द आसव के अर्थ प्रयुक्त है ( पृ०१५ ) किन्तु सूयगड में भ. महावीरने क्रियावाद का उपदेश दिया है - ऐसा निर्देश है, उसे ध्यान में रखें, यह प्रयोग आवके अर्थ में खटकता है । पृ.१८ पंक्ति १२ में "आस्रवों में प्रवृत्त होता है तब सुख का हेतु" है किन्तु यहाँ " दुःखका हेतु" होना चाहिए । देखें इसी पृष्ठ की अंतिम पंक्ति । पुस्तक के जेकेट में "जैनयोग" के नीचे जो यह मुद्रित है - " योग समाप्त होते हैं वही योग का आदि बिन्दु है" - यहाँ भ्रम होना संभव है । प्रथम योग शब्द मन-वचन-काय योग के लिए है और दूसरा योग शब्द साधना के लिए है । अत एव प्रारंभ में “कायादि के योग" लिखा होता तो अच्छा होता । दलसुख मालवणिया चेतनाका ऊर्ध्वारोहण - मुनि नथमल, प्र० आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, चूरू, ई० १९७८, रु० १३=०० | प्रस्तुत पुस्तकका पहला संस्करण ई० १९७१ में प्रकाशित हुआ था । उसी का विस्तार करके यह पुनः प्रकाशन है । इस पुस्तक के महत्त्वके विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है कि जिसने भी इसे देखा पूरा पढे बिना रहा नहीं और पुस्तक अनेक वाचकों में घूमती रहो और मूल मालिकके लिए दुर्लभ हो गई । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520758
Book TitleSambodhi 1979 Vol 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages392
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy