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________________ स्वाध्याय १२१ मान्य है ? भागवत पुराण में जो ऋषभचरित आया है क्या उसका मूल वेद का ऋषभ है या न पुराणों का ऋषभ १ जब तक इन प्रश्नों की विचारणा पर्याप्त रूप में न की जाय तब तक जैन संमत ऋभष वही है जो वेद में उल्लिखित है इसका निश्चय नहीं हो सकता । ये प्रश्न अभी अनुत्तर ही रहे हैं। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक ने यथासंभव तटस्थ रहकर ही वेदादि तथा जैन आगम और अन्य जैनसाहित्य की सामग्री को संकलित कर ऋषभचरित का निरूपण किया है । श्वेताम्बर और दिगंबर पुराणों में युगलिकधर्म संबंधी जो विवरण आया है उसमें क्यों भेद हुआ है यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । मेरी समझ में यह है कि दिगम्बर पुराणकारों के समक्ष पूरी जैन परम्परा थी नहीं या जानबूझ कर युगलिक धर्म की चर्चा टाल दी है जिससे कि हिन्दु ब्राह्मण लोग जैन महापुरुषों के चरित्र में कोई दोष दे न सके। दलसुख मालवणिया जैन आगम साहित्यः मनन और मीमांसा : श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री, प्र० श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थ माला, उदयपुर, १९७७, मू.४०) रुपये। ___इस ग्रन्थ में श्री देवेन्द्रमुनिजी ने अपनी विवेचनात्मक शैली में सभी श्वताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों का इतिहास की दृष्टि से परिचय दिया है इतना ही नहीं सभी आगमों का सार भी दिया है । इस दृष्टि से जिज्ञासु अध्येताओं के लिए अनिवार्य है। सुना है मैने आयुष्मन् : मुनि रूपचन्द्र, भारतीय ज्ञानपीठ, न्यू देल्ही, १९७७, मू. ५)। भगवान महावीर के आगमगत कुछ वाक्यों को लेकर कुछ स्वतंत्र रूप से लिखे गये अनेक निबंधों का यह संग्रह विचारप्रेरक सामग्री से संपन्न है। विचारों की उदारता इसमें है। किन्तु मुनिजी अपनी तेरापंथी मान्यता का जब समर्थन नई भाषा में क्वचित करते हैं तब वह सबको ग्राह्य होगा इसमें स देह है। शेष निबंध जीवन को उन्नत बनानेवाले हैं इसमें संदेह नहीं । पृ. ११९ में एक वाक्य है 'महावीर ने हमें मोहसे मुक्त रहने तथा अनुकम्पा से मुक्त रहने को कहा है" संभव है यहाँ प्रेस के भूतने 'अनुकम्पा से युक्त' के स्थान में 'अनुकम्पा से मुक्त' कर दिया हो । किन्तु यह तो लेखक ही बता सकते हैं कि सचमुच क्या है । 'अनुकम्पा' का उनका विवेचन वेदान्त की परिभाषा में हुआ है जो हमारी समझ के बाहर है और महावीर के उपदेश के साथ उसका मेल बैठाना हमारी शक्ति के भी बाहर है। वे लिखते हैं कि'इस अनुकमा में भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं। किसी के मरने या जीने, सुखी या दुखी होने से इसका कोई सरोकार नहीं हैं।' अनुकंपा की यह व्याख्या या विवरण भ० महावीर के मौलिक उपदेश कि 'सब जीव जीना चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता-अतएव किसी की हिंसा न करो' के साथ किस प्रकार से संगत होता है-यह विचारणीय है। इसी प्रकार से कौन है हंता कौन है हंतव्य' (पृ० १२३) लेख भी तेरापंथी मान्यता को मूलाधार मानकर लिखा गया है जो सर्वसम्मत शायद ही हो। किन्तु यह आग्रह भी क्यों रखा जाय कि जो सर्वसंमत हो वही लिखा जाय ? यह प्रश्न हो सकता है। किन्तु सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त होकर विचार करनेवाले व्यक्ति से तो यही अपेक्षा रखी जा सकती है । अतएव यहाँ यह निर्देश है। दलसुख मालवणिया श्री भद्रेश्वर-वसई महातीर्थ, रतिलाल दीपचन्द देसाई, गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद, १९७७, मू० ३०) रुपये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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