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साधारणांक सिद्धसेनसूरि-विरचित प्राकृतभाषाबद्ध
सकल-तीर्थ-स्तोत्र
संपादक : र.म.शाह विक्रमनी बारमी शताब्दीना पूर्वार्द्धमां थई गयेला, 'साधारण' उपनामथी प्रसिद्ध अने अप. भ्रंश महाकाव्य 'विलासवई-कहा'ना रचयिता श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री सिद्धसेनसूरिनु प्राकृतभाषामां रचायेल आ अद्यावधि अप्रगट 'सकल-तीर्थ-स्तोत्र' अहीं संशोधी प्रकाशित करेल छे.
सांप्रत रचनाना कर्ता सिद्धसेनसूरिए पोतानी ट्रॅकी ओळख 'विलासवई-कहा'नी प्रशस्तिमां आपी छे ते मुजब तेओ प्रसिद्ध जैनाचार्य बप्पभट्टिसूरिनी परंपरामां, यशोभद्रसूरि-गच्छमां थई गयेल यशोदेवसूरिना शिष्य हता. गुजरातना धंधुकानगरमां 'विलासवई-कहानी रचना तेमणे वि.सं.११२३. (ई.स.१०६७ )मां पूर्ण करेली. आम तेमनो समय ईसवी सननी अगियारमी सदीना द्वितीयार्धमा सुनिश्चित छे.'
विलासवई-कहा' उपरांत 'एकविंशति-स्थान-प्रकरण' नामक तेमनी एक प्राकृत रचना मळे छे, जेमां चोवोसे तीर्थ करोना च्यवन, जन्म, जनक-जननो इत्यादि एकवीस स्थान-विगतो भापवामां आवेल छे.
आ रीते सांप्रत 'सकल-तीर्थ-स्तोत्र' तेमनी प्राप्त थती त्रीजी रचना छे.
पोताना स्तुति-स्तोत्रो देशभरमां प्रसिद्ध छे एम कविए स्वपरिचय-नोंधमां लख्यु छे; आ उपरथी एमणे अनेक नानां स्तुति-स्तोत्रो रच्यां होवानुं जाणी शकाय छे, परंतु तेननी उपरोक्त त्रण कृतिओ सिवायनी अन्य कोई रचना हजी सुधी प्रकाशमां आवी नथी." - 'सकल-तीर्थ-स्तोत्र'नो पाठ नीचेनी हस्तप्रतोना आधारे निर्णित को छ:
(१) सा० ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरना सागरजीना . संग्रहनी नं. २११४९ नी; कागळ मी, एक मात्र पत्रनी, अनुमाने सोळमा शतकपां लखायेली प्रति. मुख्य आधार आ प्रतिनो लीधो छे.
(२) पा. पाटणना संघवी पाटक ज्ञान भंडारनी नं.२४३ नी ताडपत्रीय प्रतिनी नोंध आपतां, पाटण केटलोगमां पृ. ११५ उपर प्रस्तुत 'सकल-तीर्थ-स्तोत्र'नी १.१९ थी ३० अने ३२ आम कुल १४ गाथाओ नोंघेल छे. लेखनकाळनी दृष्टिए सौथी जनी होई आ प्रतना पाठनी उपयोगिता स्वयंप्रतीत छे. पण मूळ प्रत मेळववी दुष्कर होई, तेम ज ऐतिहासिक महत्व धरावती सामग्री नोंधायेल गाथाओमा आवी जती होवाथी अहीं पाठमिलानमां तेनो उपयोग कर्यो छे. १. साधारण कविना वधु परिचय माटे जुओ-विलासवई -कहा संपादक र.म. शाह, प्रकाशक ' ला० द. भा० संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद, १९७७. २. एकविंशतिस्थान-प्रकरण, सिद्धसेनसूरि (साधारण), प्रका० शेठ खीमचंद फूलचंद, शिनोर,
१९२४. ३. पत्तनस्थप्राच्यजैनभाण्डागारीयग्रन्थसूची, खण्ड-१, पृ.११५. प्रका० ओरिएन्टल इन्स्टीट्युट,
वडोदरा, १९३७.
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