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श्री आनंदघन रचित संस्कृत-स्तवन
कुमारपाल देसाई विक्रमनी सत्तरमी सदीना उत्तरार्धमां थयेला श्री आनंदघनजीनां जनी गुजरातो भाषामां लखायेलां स्तवनो अने पदो मळे छे. ऊंडु शास्त्रज्ञान अने जैन-सिद्धांत विशेनी मार्मिक समजने कारणे एमनां स्तवनो जैनसमाजमां सारो एवो आदर पाम्यां छे, ज्यारे पदोमां विरही भक्त के अलखनो नाद जगावता मर्मो संतनु दर्शन थाय छे. योग अने अध्यात्मनां ऊडाणनो गहन स्पर्श करावतां आनंदघनजीनां पदो आमजनतामां खूब जागीता छे.
स्तवनो अने पदो उपरांत श्रीआनंदघनजीए संस्कृत भाषामां रचेलु एक स्तवन मळी आवे छे. आ 'सिद्ध चतुर्विशतिका' स्तवननो ऊडीने आंखे वळगे तेवी विशेषता ए एनी अनु- - प्रास प्रधानता छे. आनो रचियता सतत प्रासानुप्रास मेळवे छे अने ए द्वारा सिद्ध पुरुषोमां शेनो शेनो अभाव होय छे, ते दर्शाबे छे. क्यारेक प्रासनी प्रधानताने कारणे. रचना बिनजरूरी लांबी, कढंगी अथवा तो अर्थना मेळ वगरनी लागे छे.
आ स्तवन पर श्री शंकराचार्यरचित निर्वाणदशक (१० लोक) अने निर्वाणषट्क (६. प्रलोक) नी 'छाया जोई शकाय छे. ए बने वेदांत स्तोत्रना शब्दोनो प्रभाव आ 'सिद्धचतुर्विशतिका'मां ठेर ठेर देखाय छे. परंतु ए नोंधथु जोईए के 'निर्वाणदशक' अने 'निर्वाणषट्क' ए बने रचनाओ प्रौढ लागे छे अने वेदांतनु स्पष्ट अने आबेहुब प्रतिबिंब झीले छे. ज्यारे 'सिद्धचतुर्विंशतिका' ए पेली बने कृतिओ करतां नबळी रचना लागे छे. संप्रदायनी दृष्टिए आ रचनामां वेदांतना सिद्धांतनु सीधेसीधु प्रसिबिंब झीलq योग्य लाग्यु नहि होय.
_ 'सिद्धचतुर्विशतिका' नी हस्तप्रत श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर ना श्रीपुण्यविजयजी संग्रहमांथी प्राप्त थई छे. एनो प्रत क्रमांक १३९९६।२ छे. प्रतनी स्थिति श्रेष्ठ छे अने एनो लेखन संवत १७१८ छे. आ प्रतना पांचमा पत्र पर २५ पद धरावतुं आनंदघन रचित संस्कृत स्तवन मले छे. परंतु आ 'सिद्धचतुर्वि शतिका',लखनार लहियो संस्कृत भाषा पर जरूरी काबु घरावतो न होवाथी एणे ठेर ठेर भूलो करी छे. अहीं मूल स्तवनमा ए भूलो सुधारवानो प्रयत्न कर्यो छे पण तेमां पूरी सफलता मळी छे एम नथी. एनो अशुद्ध पाठ टिप्पण तरीके आप्यो छे. शक्य तेटलां पद्योनो गुजराती अनुवाद पण आप्यो छे......
सिद्धचतुर्विशतिका ॥॥ प्रणम्य स्फुरत्-स्वर्णशैलप्रभावं प्रभापूर दूरीकृतध्वान्तभावम् । युग दोश्वरं लब्धविश्वस्वरूपं स्तुने किश्च नाह' सुसिद्धस्वरूपम् ॥१॥ .. न पाणर्न पादो न मौलिने वक्त्रं न वक्षो' न श्रोत्रे न कौन कण्ठः । न चायुर्न पायुर्न कायः कषायो भजे तं प्रसिद्धं सदा शुद्धसिद्धम् ॥२॥ न खेदो न वेदो न सेकः प्रवेगो न कुन्दं न तुन्दं न बाहुन चोरुः ।.. न जंघे न पार्वे न चांसौ न मांसं भजे तं प्रसिद्धं सदा शुद्धसिद्धम् ॥३॥
१ किंचीताह २ ०धं ३ वक्त्रे ४ ० ५ ०ध ६ चांसो ७ नं ८ . ९०१० ०धं (आ रोते मूळमां बधे 'द्ध' ने बदले 'ध' छे ते समजी लेवे).
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