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________________ जैनदर्शन में तर्कप्रमाण ७३ विशिष्टता नहीं रहती है क्योंकि उसका विषय प्रत्यक्ष जितना सीमित रहता है। यदि इस ऊहापोह का विषय प्रत्यक्ष से व्यापक हैं, तो उसे आना इ. विशिष्टता के कारण एक अन्य प्रमाण ही मानना होगा और यहां वह जैन दर्शन के तर्क प्रमाण से भिन्न नहीं कहा जा सकेगा। न्याय दार्शनिकों ने तर्क सहकृत भूयोदर्शन को व्याप्तिग्राहक साधन माना है । वाचस्पति मिश्र ने न्याय वार्तिक तात्पर्य टीका में इसे स्पष्ट किया है कि अकेले प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता अपितु तर्क सहित प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण होता है, क्योंकि व्याप्ति उपाधिविहीन स्वाभाविक सम्बन्ध है । चूकि भूयोदर्शन या प्रत्यक्ष से सफल उपाधियों का उन्मूलन सम्भव नहीं है, अतः इस हेतु एक नवीन उपकरण की आवश्यकता होगी और वह उपकरण तर्क है। किन्तु यदि अकेला प्रत्यक्ष व्याप्ति ग्रहण में समर्थ नहीं है तो ऐसी स्थिति में व्याप्ति का अन्तिम साधन तर्क को ही मानना होगा । यद्यपि यह सही है कि तर्क प्रत्यक्ष के अनुभवों को साधक अवश्य बनाता है किन्तु व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष से नहीं होकर तर्क से ही होता है। इसलिए तर्क के महत्त्व को स्वीकार करना होगा। तर्क को प्रमाण की कोटि में स्वी. कार न कर उसकी महत्ता को अस्वीकार करना, कृतघ्नता ही होगी । इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने व्यंग्य करते हमें कहा था कि यह तो तपस्वी के यश को समाप्त करने जैसा ही है। ___ जहां तक इस बात का प्रश्न है कि तर्क प्रत्यक्ष की सहायता से ही व्याप्ति का ग्रहण करता है, तो जैन दार्शनिकों का इससे कोई विरोध नहीं है। उन्होंने तर्क की परिभाषा में ही इस बात को स्वीकार कर लिया है कि प्रत्यक्ष आदि के निमित्त से तर्क की प्रवृत्ति होनी है। यह भी सही है कि प्रत्येक परवर्ती प्रमाण को अपने पूर्ववर्ती प्रमाण की सहायता प्राप्त होती है किन्तु इससे उस प्रमाण को स्वतन्त्रता पर कोई बाधा नहीं होती। अनुमान के लिए भी प्रत्यक्ष और व्याप्ति सम्बन्ध की अपेक्षा होती है, किन्तु इससे उसके स्वतंत्र प्रमाण होने में कोई बाधा नहीं आती। जेन दार्शनिकों की विशेषता यह है कि वे तर्क को केवल शंकानिर्वतक ही नहीं, अपितु ज्ञानप्रदान करने वाला भी मानते हैं। अतः वह स्वतंत्र प्रमाण है। जैन दर्शन और न्याय दर्शन में तर्क की महत्ता को लेकर मात्र विवाद :इतना ही है कि जहां न्याय दर्शन तर्क का कार्य निषेधात्मक मानता है वहां जैन दर्शन ने तर्क का विधायक कार्य भी स्वीकार किया है। . पाश्चात्य निगमनात्मक न्याय युक्ति में प्रमाणिक निष्कर्ष की प्राप्ति के लिए कम से कम एक आधार वाक्य का सामान्य होना आवश्यक है, किन्तु ऐसे सामान्य वाक्य की, जो कि दो तथ्यों के बीच स्थित कार्य कारण सम्बन्ध पर आधारित होता है, की स्थापना कौन करे ? इसके लिए उस आगमनात्मक तर्कशास्त्र का विकास हुआ जो कि ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित था किन्तु ऐन्द्रिक अनुभववाद (प्रत्यक्षवाद ) ओर उसी मित्ती पर स्थित मिल की अन्वय व्यतिरेक आदि को पांचो आगमनिक विधियां भो निर्विवाद रूप से कार्यकरण सम्बन्ध पर आधारित सामान्य वाक्य की स्थापना में असफल ही रही है। श्री कोइन एवं श्री नेगेल अपनी पुस्तक Logic and Scientific Method में मिल की आगमनात्मक युक्तियों की अक्षमता को स्पष्ट कुरते हुए लिखते हैं - The canons of experimental inquiry are not therefore capable of demonstrating any casual laws. The experimental me. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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