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सागरमल जैन
होसे वाले संस्कार की सहायता भी अपेक्षित रहती है किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा व्यभिचार शकाओं का पूर्णतः निर्मूलन न होने के कारण यह मत भी युक्ति संगत नहीं है ।
जयतं भटूट ने नियमित सहचार दर्शन को ही व्याप्ति निश्चय का कारणभूत उपाय माना है किन्तु यह मत इसलिए समीचीन नहीं है कि नियत सहचार दर्शन केवल अतीत और वर्तमान पर आधारित है किन्तु उसकी क्या गारंटी है कि यह सम्बन्ध भविष्य के लिए भी तथा देशान्तर और कालान्तर में भी कार्यकारी सिद्ध होगा । इस शंका का निरसन करने के लिए सहचार नियम क्षमताशोल नहीं है ।
इस प्रकार प्रेक्षण या इन्द्रिय-प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि व्याप्ति स्थापन में समर्थ नहीं है । अनुमान से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नही है क्योंकि प्रथम तो अनुमान की वैधता तो स्वयं ही व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान की वैधता पर निर्भर है। यदि हमारा व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान प्रमाणिक नहीं हैं तो अनुमान तो प्रमाणिक हो ही नहीं सकता ।
. अनुमान को व्याप्ति ज्ञान का आधार मानने में मुख्य कठिनाई यह है कि जब तक व्याप्ति ज्ञान न हो जाय . अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती। यदि अनुमान स्वयं ही अपनी व्याप्ति का ग्राहक है तो हम आत्माश्रय दोष से बच नहीं सकते । इससे भिन्न यदि हम यह माने कि एक अनुमान की व्याप्ति का ग्रहण दूसरे अनुमान से होगा तो ऐसी स्थिति में . एक अनुमान की व्याप्ति के ग्रहण के लिए दूसरे अनुमान की और दूसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए तीसरे अनुमान की और तीसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए चौथे अनुमान की आवश्यकता होगी और इस शृङ्खला का कहीं अन्त नहीं होगा अर्थात् अनवस्था दोष का प्रसंग उत्पन्न होगा।
इस प्रकार हम. देखते हैं कि न तो प्रत्यक्ष से, न अनुमान से ही व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है । यद्यपि कुछ विचारकों ने इन कठिनाईयों को जानकर व्याप्ति ग्रहण के अन्य उपाय भी सुझाये हैं । इन उपायों में एक अन्य उपाय निर्विकल्प प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाले विकल्प ज्ञान को व्याप्ति ग्रहण का आधार मानता है । यह सही है कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष अविचारक होने से व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु उस पर आधारित विकल्प व्याप्ति. का. ग्रहण करता है। लेकिन यदि निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत. विषय तक ही उस विकल्प की प्रवृति है तो भी उससे व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है । यदि वह विकल्प निर्विकल्प प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं रखता है और उसका विषय उपसे व्यापक हो सकता है तो निश्चय ही उसमें व्याप्ति ग्रहण माना जा सकता है ।
• यदि हम उस विकल्प को प्रमाण मानते हैं तो हमें उसे प्रत्यक्ष और अनुमान से अलग प्रमाण मानना होगा और ऐसी स्थिति में उसका स्वरूप वही होगा जिसे जैन दार्शनिक तर्क प्रमाण कहते हैं । यदि हम उस विकल्प ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं तो व्याप्ति प्रामाणिक नहीं होगी। अप्रामाणिक ज्ञान से चाहे यथार्थ व्याप्ति प्राप्त भी हो जावे किन्तु उसे प्रमाण नहीं मान सकते । यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे कि असत्य आधार वाक्य से सत्य निष्कर्ष प्राप्त करना । इसीलिए जैन दाशनिकों ने व्या में इसे हिंजडे से सन्तान उत्पन्न करने की आशा करने के समान माना है ।
वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष के फल स्वरूप होनेवाले ऊहापोह को व्याप्ति ग्रहण का साधन माना है। यदि इस अहापोह का विषय मात्र प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा स्मृति रहती है तो फिर उसमें भी कोई
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