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________________ जैनदर्शन में तर्कप्रमाण ७१ क्योंकि दोनों की मूल प्रकृति अन्तःप्रज्ञात्मक है, वे इन्द्रिय ज्ञान नहीं अपितु प्रातिभ ज्ञान है। यह सुनिश्चित सत्य है कि मात्र प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि कालिक व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकती है जब तक कि वह तर्क या प्रातिभज्ञान का सहारा नहीं लेती है । क्योंकि अन्वय, व्यतिरेक और सम्भव होता. तीनों कालों सामान्यतः व्याप्ति स्थापन में अन्वय और व्यतिरेक को महत्त्वपूर्ण माना जाता है । अन्वय का अर्थ है हेतु और साध्य का सभी उदाहरणों में साथ पाया जाना । उदाहरणार्थ : जहां जहां धुआं देखा गया उसके साथ आग भी देखी गई है तो हम धुऐ और आग में व्याप्ति मान लेते है, किन्तु अन्वय के आधार पर व्यास की स्थापना सम्भव नहीं है। यदि दो चीजें सदैव एक दूसरे के साथ देखी जावे तो उनमें व्याप्ति हो यह आवश्यक नहीं है । अन्वय के आधार पर व्याप्ति मानने में सबसे बड़ी कटनाई यह है कि अन्वय के सभी दृष्टान्त नहीं देखे जा सकते हैं और केवल इन कुछ दृष्टान्तों के आधार पर म्पाप्ति ग्रहण सम्भव नहीं है। केवल व्यक्तिरेक के आधार पर व्याप्ति की स्थापना नहीं की जा सकती है। अन्वय और व्यतिरेक संयुक्त रूपसे भी व्याप्ति स्थापन नहीं कर सकते हैं। यहां ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के प्रेक्षण से व्याप्ति की धारणा पुष्ट होती है किन्तु ये केवल इतना सुझाव देते हैं कि इन दो तथ्यों के बीच व्याप्ति सम्बन्ध हो सकता है । इनसे पाप्ति का निश्चय या सिद्धि नहीं होती है अन्वयव्यतिरेक की संयुक्त विधी तीनों ही सीमित उदाहरणों का प्रत्यक्षीकरण है। अतः इनके आधार पर मैकालिक व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। में और तीनों लोक में जो कुछ धूम है वह सच अग्नि युक्त है इतना व्यापार प्रत्यक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है फिर वह प्रत्यक्ष चाहे अन्वय रूप हो या व्यतिरेक रूप नैयायिकों ने इस कठिनाई से बचने के लिए अतिरेक-भूबोदर्शन को व्यादित स्थापन का आधार बनाने का प्रयास किया था। किरणावली में भूयः अवलोकन को ही व्याप्ति निश्चय के प्रति कारणभूत उराव माना गया है। भूयोदर्शन का अर्थ है अन्यय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों का बार बार अवलोकन करना। यह ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के बार बार अवलोकन से व्याप्ति होने को धारणा की पुष्टि होती है । किन्तु यह भूयो दर्शन या बार बार अवलोकन प्रथमतः त्रैकालिक नहीं हो सकता है अतः इससे त्रैकालिक व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना नहीं हैं । दूसरे भूयो दर्शन से उपाधि के अभाव का निश्चय नहीं हो सकता। जहां जहां धूम होता है वहां वहां आग होती है, इस प्रकार अन्वय के सैकड़ों उदाहरण तथा जहां जहां अग्नि नहीं है वहां वहां धूम नहीं है इस प्रकार व्यतिरेक के सैकड़ों उदाहरण अग्नि का धूम के साथ स्वाभाविक व कालिक सम्बन्ध सुचित नहीं कर सकते हैं धन के गीलेपन की उपाधि से दूषित होने के कारण यह औपाधिक सम्बन्ध है, स्वाभाविक नहीं सहचार दर्शन स्वाभा विक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का चाहे निश्चय कर भी ले, किन्तु औपाधिक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का निश्चय उसके द्वारा सम्भव नहीं है। गंगेश ने इसकी आलोचना में मिला है कि साध्य और सहचार का भूयो दर्शन क्रमिक अथवा सामूहिक रूप से व्याप्ति ज्ञान का कारण नहीं है। रघुनाथ शिरोमणि गदाधर भट्टाचार्य, विश्वनाथ, अन्नम् भट्ट तथा नीलकंठ ने एक मत से भूयो दर्शनको व्याप्तिग्राहक प्रमाण नहीं माना है। श्रीधर के अनुसार व्याप्ति का निश्चय प्रतिपक्ष शंका रहित अन्तिम प्रत्यक्ष से होता है, जिसमें उसे सहभाव विषयक प्रत्यक्ष से उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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