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________________ सागरमल जैन हे (धू) ७ सा (७ अ) – सत्य सा ( अ) हे (धू) - सत्य हे ( अ) सा (धू) - सत्य सा (धू) हे ( अ)- सत्य अर्थात् निषेधात्मक व्याप्ति में दोनों ही रूप सत्य है । तर्क को व्याप्तिग्रहण का साधन और स्वतंत्र प्रमाण क्यों माने __ जैन तार्किकों ने तर्क को स्वतंत्र प्रमाण इसीलिए माना था कि तर्क प्रमाण माने बिना व्याप्ति ज्ञान की प्रमाणिकता सम्भव नहीं है। यदि हम अनुमान को प्रमाण मानते हैं तो हमें तर्क को भी प्रमाण मानना होगा क्योंकि अनुमान को प्रमाणिकता व्याप्ति ज्ञान की प्रमाणिकता पर निर्भर है और व्याप्तिज्ञान की प्रमाणिकता स्वयं उसके ग्राहक साधन तर्क की प्रमाणिकता पर निर्भर होगी । यदि व्याप्ति का निश्चय करने वाला साधन तर्क ही प्रमाण नहीं है तो व्याप्ति ज्ञान भी प्रमाणिक नहीं होगा और फिर उसो व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान पर आश्रित अनुमान प्रमाण कैसे होगा ! अतः तर्क को प्रमाण मानना आवश्यक है । पुनश्च यदि तर्क को प्रमाण नहीं मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि व्याप्ति-ग्रहण तर्क से इतर अन्य किसी प्रमाण से होता है, किन्तु तर्केतर अन्य प्रमाण व्याप्ति ज्ञान ग्राहक नहीं हो सकते । सर्वप्रथम इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण की समीक्षा करके देखें कि क्या उनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव है। इस सम्बन्ध में जैन तार्किकों का उत्तर स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं है। लौकिक प्रत्यक्ष अर्थात् ऐन्द्रिक प्रत्यक्ष से व्याप्ति या अबिनाभाव सम्बन्ध का निश्चय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि प्रथम तो प्रत्यक्ष का विषय विशेष होता है और विशेषों की कितने ही उदाहरणों के ज्ञान से सामान्य का ज्ञान सम्भव नहीं है। हम मोहन, सोहन आदि हजारों लाखों मनुष्यों को मरता हुआ देखकर भी उसके आधार पर यह दावा नहीं कर सकते कि सब मनुष्य मरणशील है। दूसरे विषयों के सभी उदाहरणों को जान पाना भी सम्भव नहीं है। पुनः प्रत्यक्ष वर्तमान काल को ही विषय बनाता हैं जबकि व्याप्ति का निश्चय तो त्रैकालिक ज्ञान के बिना सम्भव नहीं। भूतकाल के अनेकों उदाहरणों का प्रत्यक्ष भी यह गारन्टी नहीं देता है कि भविष्य में ऐसा होगा । भूतकाल के अनेकानेक (लगभग सभी) मनुष्य मर गये और वर्तमान में अनेक मर रहे हैं किन्तु इससे हम यहाँ कैसे कह सकते है कि भविष्य काल के सभी मनुष्य मरेंगे ही। हो सकता है कि भविष्य में कोई ऐसी औषधि निकल आवे कि मनुष्य अमर हो जावे। प्रत्यक्ष के विषय सदैव ही देशिक और कालिक तथ्य होते हैं, अतः उससे सार्वभौमिक और सार्वकालिक व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण नहीं हो सकता। - प्रत्यक्ष अथवा प्रेक्षण पर आधारित व्याप्ति स्थापन की कई विधियाँ हैं, जैसे अन्वय, व्यतिरेक, भूयो दर्शन, नियत सहचार दर्शन, व्यभिचार अदर्शन और सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति आदि । इनमें से सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । जहाँ तक सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति का प्रश्न है उसे प्रत्यक्षात्मक कहना भी कठिन है। वह मूलतः जैन दर्शन के तकें के प्रत्यय से भिन्न नहीं है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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