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________________ ६८ सागरमल जैन हे' भी पाप्ति सम्बन्ध सिद्ध हो जायेगा। यहां हमे यह ध्यान रखना होगा कि जहां न्याय दर्शन केबल ८०० हे' को तर्क का प्रतीक मानता है वहां जैन दर्शन 'सा और 'हे सा' दोनों की ही स्वीकार करता है। डा० मारलिंगे ने भी माना है कि 50 सा 'से हम 'सा' के निष्कर्ष पर निर्दोष रूप से पहुँच सकते हैं । इस प्रकार जैन दर्शन न्याय दर्शन से एक कदम आगे बढ़कर यह निर्णय देता है कि हे सा अर्थात् धूम का सद्भाव अग्नि के सद्भाव का सूचक है । धूम के सद्भाव और अग्नि सद्भाव में व्याप्ति सम्बन्ध है । जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन नव्य न्याय में हमें मिलता है। वह तर्क के पाप्ति परिशोधक तर्क और स्पाप्ति ग्राहक तर्फ ऐसे दो विभाग करता है । उपरोक्त उदाहरण में छठा चरण व्याप्ति परिशोधक तर्क का और सातवां तथा आठवां चरण व्याप्ति ग्राहक तर्क का है यद्यपि इस सब में तर्क का मुख्य कार्य तो वहां है जहाँ हम सहभाव एवं क्रमभाव के अन्वय और व्यतिरेक के साधक हान्तों तथा व्यभिचार दर्शन रूप बाधक दृष्टान्त के अभाव में व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय करते हैं । यह विशेष के ष्टान्तों से सामान्य नियम की ओर अथवा सहभाव एवं क्रमभाव से आपादन का (impli cation ) कार्य-कारण सम्बन्ध की ओर जो छलांग है तर्क उसी का प्रतीक है । यद्यपि तर्क के इस प्रतीकात्मक स्वरूप के बारे में अभी काफी विचार और संशोधन को आवश्यकता है, क्योंकि सहभाव ( ) से व्याप्ति ( ) पर कैसे पहुंचा जाता है यह स्पष्ट नहीं है किन्तु फिर भी इसे मान्य करना इसलिए आवश्यक है कि हम भाषा सम्बन्धी कुछ सम्भावित भ्रान्तिओं से बच सके। उदाहरण के लिए जैन न्याय के अद्वितीय विद्वान पं. कैलाशचन्द जी 'जैन न्याय' नामक ग्रन्थ में तर्क की परिभाषा की व्याख्या करते हुए मिलते हैं, 'उपलम्भसाध्य के होने पर ही साधन का होना और अनुपलम्भ - साध्य के अभाव में साधन का न होना के निमित्त से होने वाले व्याप्ति ज्ञान को तर्क कहते हैं' (जैन न्याय पृ०२०९ ) किन्तु क्या साध्य (अग्नि) के सद्भाव से साधन या हेतु (धुएँ) का सद्भाव सिद्ध हो सकता है ? कदापि नहीं । वस्तुतः यहां साध्य के होने पर ही साधन का होना इस कथन का अर्थ भावात्मक न होकर अभावात्मक ही है अर्थात् यह साध्य के अभाव में साधन के अभाव का द्योतक है न कि साध्य के सद्भाव में साधन के सद्भाव का। क्योंकि धूम ही नियत है, अग्नि धूम से नियत नहीं है। इसका नियम है साधन ( हेतु ) का सद्भाव साध्य के सद्भाव का और साध्य का अभाव साधन या हेतु के अभाव का सूचक है, जिसका प्रतिकात्मक रूप होगा 'हे सा' तथा 'सा 2 हे' । अतः इस नियम का कोई भी व्यतिक्रम असस्य निष्कर्ष की ओर ले जानेगा हम साध्य की उपस्थिति से हेतु की उपस्थिति या अनुरस्थिति के सम्बन्ध में कोई भी निर्णय नहीं ले सकते हैं। भावात्मक दृष्टान्तों में व्याप्त देतु और साध्य अर्थात् धूम के सद्भाव और अग्नि के सद्भाव के बीच होती है किन्तु अभाव दृष्टांत में वह साध्य और हेतु अर्थात् अग्नि के अभाव और धूम के अभाव के बीच होती हैं । इसका निर्देश हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी व्याप्य-व्यापक भाव या गम्यगमकभाव के रूप में किया है। उन्होने यह बताया है कि धूम की उपस्थिति से अग्नि की उपस्थिति का और अग्नि की अनुरस्थिति से धूम की अनुपस्थिति का निश्वय किया जा सकता हैं. किन्तु नियन का कोई भी व्यविक्रम सत्य नहीं होगा। क्योंकि धूम व्याप्प है और अग्नि + Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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